बतंगड़ बेतुक : अब तो भड़क जाओ यारों

Last Updated 29 May 2022 12:15:29 AM IST

झल्लन हमें देखते ही बोला, ‘ददाजू, हमारे मन में निराशा का तूफान फूट रहा है और धर्म-मजहब पर से हमारा भरोसा ही टूट रहा है।’


बतंगड़ बेतुक : अब तो भड़क जाओ यारों

हमने कहा, ‘मियां झल्लन, धर्म-मजहब पर तेरा कब, कौन सा भरोसा था जो अब टूट रहा है, जिसके चलते तेरे मन में निराशा का सोता फूट रहा है?’ झल्लन बोला, ‘अब देखिए ददाजू, इधर धर्म पूरी ताकत झोंककर अपना काम कर रहा है, उधर मजहब पूरा जोर लगा रहा है लेकिन अभी तक मनचाहा परिणाम सामने ही नहीं आ रहा है।’ हमने कहा, ‘धर्म-मजहब एक-दूसरे के विरुद्ध सदियों से जोर लगाते रहे हैं सो आज भी लगा रहे हैं पर तू किन परिणामों की बात कर रहा है जो सामने नहीं आ रहे हैं?’
वह बोला, ‘ददाजू, लगता है आप हमारे धर्मधुरंधर धर्मगुरुओं, धर्म-रक्षक नेताओं और उधर मजहब के पैरोकार मुल्ला-मौलवियों,  उलेमाओं  और मजहबपरस्त नेताओं के भाषण-बयान नहीं सुनते हो, न मीडिया न सोशल मीडिया की छाती पर किटिकटाती इनकी टिप्पणियों पर ध्यान देते हो। हर जगह दे-दनादन के कितने अखाड़े चल रहे हैं और सब एक-दूसरे के चेहरे पर अपने गंदे-भद्दे तकरे-कुतकरे की कीचड़ मल रहे हैं। अब आप सोचिए, यह सब काहे के लिए हो रहा है और अगर हो रहा है तो हवा में तो नहीं हो रहा है।’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, धर्म-मजहब के ये टंटे चलते आ रहे हैं, चल रहे हैं और आगे भी चलते रहेंगे, ये हमारे-तेरे किये नहीं रुकेंगे।’
झल्लन बोला, ‘अफसोस तो यही है ददाजू कि सब कुछ रुका हुआ सा लग रहा है, लगता है धर्म-मजहब का हर ठेकेदार हमें ठग रहा है।’ हमने कहा, ‘पहेली मत बुझा जो कहना चाहता है वह सीधे-सीधे बता।’ वह बोला, ‘देखिए ददाजू, जिस तरह के जीतोड़ प्रयास हो रहे हैं उससे धर्म प्रेमियों का खून खौल जाना चाहिए था, मजहबपरस्तों के खून में उबाल आ जाना चाहिए था और दोनों को एक-दूसरे को फाड़कर खा जाना चाहिए था। पर देखिए, कभी हिजाब उठ जाता है, कभी जुलूस निकल जाता है, कभी पत्थर फिक जाता है, कभी बुलडोजर चल जाता है, कभी मंदिर में मस्जिद और कभी मस्जिद में मंदिर घुस जाता है पर इसके आगे सब कुछ रुक जाता है और जो हो जाना चाहिए था वह हो ही नहीं पाता है।’

हमने कहा, ‘तू कैसी देशविरोधी-जनविरोधी बातें कर रहा है झल्लन, तू चाहता है कि धर्म-मजहब आपस में भिड़ जायें, चारों तरफ दंगे भड़क जायें और लोग एक-दूसरे की गर्दन उतारने पर उतर आयें?’ झल्लन बोला, ‘कैसी बात करते हो ददाजू, ये हम नहीं धर्म-मजहब का हर ठेकेदार चाह रहा है, एक-दूसरे की ताकत को थाह रहा है। हम तो चाहते हैं कि हर कोई हर किसी से भिड़ जाये और जो होना हो वो तुरंत हो जाये।’ हमने कहा, ‘पर झल्लन, ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है कि एक का धर्म और दूसरे का मजहब इसे रोक रहा है। धर्म-मजहब ऐसे सत्य पर आधारित होते हैं जो इंसान को सिर्फ  लड़ना ही नहीं मोहब्बत करना भी सिखाते हैं और एक-दूसरे से गले मिलना भी बताते हैं।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, हमें तो भरोसा ही नहीं हो रहा कि धर्म-मजहब के बारे में आप ऐसी पलटी मारोगे और जिस धर्म-मजहब को आप खुद झूठा बताते थे उसको सच उचारोगे और धर्म-मजहब के थोथे झूठ पर सत्य का ऐसा झूठा आरोपण करोगे। हमने जो इतिहास पढ़ा है या जो हमें पढ़ाया गया है उसमें तो इन्हें एक-दूसरे का जानी दुश्मन बताया गया है, कभी किसी को हराया गया है तो कभी किसी को जिताया गया है। हमें लगता है कि धर्म-मजहब के बीच न कभी प्यार की गंगा बही है न बह रही है न आगे बहेगी, इनकी आपसी जंग ऐतिहासिक सच्चाई है जो भविष्य में भी सच होकर रहेगी। और दूसरी बात ये ददाजू कि हमें नहीं मालूम कि धर्म-मजहब प्यार से रहना कहां सिखाते हैं,  जहां तक हमने देखा-सुना है और देख-सुन रहे हैं, वहां तक ये एक-दूसरे के प्रति अपने-अपने लोगों में नफरत और गुस्सा जगाते हैं और नफरत और गुस्सा जगाने के लिए ही हर मंच पर एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते-खौखियाते हैं।’
हमने कहा, ‘सच तो यही है झल्लन कि हम भी वही महसूस कर रहे हैं जो तू महसूस कर रहा है, फिर भी इंसानियत पर हमारा भरोसा कम नहीं हो रहा है। हम चाहते हैं कि सब आपस में बैठकर प्यार से एक-दूसरे को सुनें-समझें और समझाएं और अपने-अपने धर्म-मजहब के ऊपर इंसानियत को बिठाएं। कोई भी धर्म और मजहब इंसानियत से बड़ा नहीं होता है और जो इंसान को इंसान बनाए रखने में मदद करता है वही धर्म-मजहब होता है।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, आप फिर खयाली बातें कर रहे हो, जो खांटी सच्चाई है उस पर ध्यान नहीं धर रहे हो। अगर धर्म-मजहब के बीच ऐसी समझदारियां आ जाएंगी तो दुनियाभर के कथित संत-साधुओं, धर्मगुरुओं, मुल्ला-मौलवियों और नेताओं की जंग रुक जाएंगी और उनकी रोटियां सिकना बंद हो जाएंगी। हम नहीं चाहते कि इन बेचारों की दुकानें बंद हो जायें, ये बेरोजगार हो जायें। इसीलिए हम चाहते हैं कि जो भविष्य में होना है वह अभी हो जाये और ये रोज-रोज की ले-मार, दे-मार खत्म हो जाये।’

विभांशु दिव्याल


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