मीडिया : जनतांत्रिक बोध का विकास और मीडिया

Last Updated 29 May 2022 12:07:06 AM IST

टीवी की एक लाइव बहस में एक प्रवक्ता कहता है कि हम तीन नहीं, अड़तालीस हजार मंदिर वापस लेंगे और कानूनी रास्ते से लेंगे तो मीडिया क्या करे?


मीडिया : जनतांत्रिक बोध का विकास और मीडिया

लाइव बहस से इसे कैसे हटाए? इसी तरह एक मुस्लिम नेता एक सार्वजनिक सभा में कहता है कि मुगलों से मुसलमानों का रिश्ता पूछते हो तो बताओ कि मुगलों की बीबियां कौन थीं? इन दिनों ऐसी खबरों और बाइटों की भरमार है, जो निरी घृणामूलक और उत्तेजक हैं। सवाल है कि ऐसे में चैनल क्या करें? ऐसे वक्तव्यों को ‘ब्लैकआउट’ कर दें या दिखाएं?
जब ऐसी तिक्त और कड़वी खबरों को चैनल   दिखाते हैं, तो कई कहते हैं कि चैनलों को ऐसी बातें नहीं दिखानी-बतानी चाहिए। ऐसी खबरें घृणा फैलाती हैं। लेकिन अगर नहीं दिखाएंगे तो दूसरे कहेंगे कि ये खबर चैनल अपना काम नहीं कर रहे हैं, सिलेक्टिव हैं। एक पक्ष को दिखाते हैं, दूसरे को दबाते हैं। कहना न होगा कि मीडिया की तटस्थता हमेशा से मिथ रही है। सिद्धांतत: मीडिया अपने को लाख तटस्थ कहे लेकिन व्यवहार में तटस्थ नहीं रह सकता। और, जिन दिनों हमारी राजनीति हर चीज को विभाजित करती जा रही हो उन दिनों कौन तटस्थ रह सकता है?
हमारे खबर चैनल भी इसके अपवाद नहीं हैं। कोई चैनल अपने को राष्ट्रवादी की तरह पेश करता है, तो कोई राष्ट्र को सिर्फ  ‘विचार’ की तरह मानता है। कोई अपने देशभक्त की तरह पेश करता है, तो कोई अपने को सेक्युलर बताता कोई सत्ता पक्ष की बात को सत्ता की भाषा में पेश करता है, तो कोई सत्ता की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ता। कोई एंकर सत्ता के पक्ष में झुका दिखता है, तो कोई हर बात पर सत्ता की खटिया खड़ी करता रहता है, हर बात में फासिज्म को खोजता रहता है। कोई एंकर हिंदू पक्ष की ओर कुछ झुका दिखता है, तो कोई मुस्लिम पक्ष की ओर कुछ झुका नजर आता है। और जिन दिनों धार्मिक ध्रुवीकरण तेज करने वाली खबरें बन रही हों, उन पर तीखी बहसें हो रही हों, तब कौन तटस्थ रह सकता है?
फिर भी हमारा मानना है कि अपनी सारी सीमाओं के बावजूद मीडिया ने इन झगड़ालू दिनों में भी वही किया है, जो वह कर सकता था। वह अपने समाज के प्रति सच्चा रहा है। समाज में जो हो रहा है, या जो कहा-सुना जा रहा है, या जो घटना के रूप में हो रहा है, उसे खबर बनाया है, और हर उस मुद्दे पर जो समाज पर असर डाल सकता है, उस पर बहसें कराई हैं।

आज का मीडिया सिर्फ  खबर को सिर्फ  खबर की तरह देने वाला नहीं हो सकता। खासकर सोशल मीडिया के जमाने में मुख्यधारा का मीडिया सिर्फ  सूखी खबर देने वाला नहीं हो सकता। वे सिर्फ ‘आउटपुट’ का माध्यम नहीं हो सकता कि ‘जो हुआ उसे ‘जस का तस’ दिखा-बता दिया’। आज के मीडिया को ‘इनपुट’ का माध्यम भी होना होता है ताकि ‘जो हुआ’ उसके पक्ष विपक्ष भी स्पष्ट हो सके और जनता अधिक जागरूक हो सके और अपने विवेक से सही-गलत का फैसला कर सके। इसका मतलब यह भी नहीं कि हमारे चैनल दूध के धुले हैं, या कि उनसे गलतियां नहीं होती या कि वे इस या उस ओर झुके नहीं हैं।  
हम यह भी जानते हैं कि अपने मीडिया का मॉडल ‘प्राइवेट बिजनेस’ का मॉडल है। वह लाभ के लिए काम करता है। इसलिए हमेशा बीच की लाइन लेने के चक्कर में रहता है। इस तरह उसे तीन-तीन देवताओं को साधना होता है : एक ओर उसे सत्ता को साधना होता है, दूसरी ओर जनता को साधना होता है और तीसरी ओर बाजार को साधना होता है। इस सबके बावजूद, हमारे चैनलों ने कुछ गजब के काम किए हैं,  जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इनमें सबसे बड़ा काम है तीखे विभाजनकारी मुद्दों को ‘पॉपूलर बहस’ का मुद्दा बनाकर पेश करना, हर मुद्दे के पक्ष और विपक्ष को खोलकर समझाना कि हर बात का सिर्फ एक पक्ष नहीं होता, उसका दूसरा पक्ष भी होता है, तीसरा पक्ष भी होता है, जिनका सम्मान किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, मीडिया ने अपनी रोज की पॉपूलर बहसों के जरिए  हर  सामयिक मुद्दे पर एक तात्कालिक ‘जन विमर्श’ विकसित किया है, और सबको एक ‘पॉपूलर सामाजिक विमर्श’ तथा ‘राजनीतिक विमर्श’ दिया है। साथ ही एक ‘वैकल्पिक धर्मिंक विमर्श’ व ‘वैकल्पिक इतिहासबोध’ भी दिया है,  जिसने कुछ गरम बहसें पैदा की हैं, और फिर भी सबको यकीन दिलाया है कि हर झगड़े का निपटारा बातचीत से और कानून से ही संभव है, और इस मामले में हर पक्ष को संविधान में यकीन करना जरूरी है।
इस तरह के पॉपूलर जनतांत्रिक बोध का विकास कोई कम उपलब्धि नहीं।

सुधीश पचौरी


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