मुद्दा : क्या सभी एनकाउंटर फर्जी होते हैं?
नवम्बर 2019 में तेलंगाना राज्य के हैदराबाद में हुए गैंगरेप और हत्या के चार अभियुक्तों के संदिग्ध एनकाउंटर को सर्वोच्च न्यायालय की जांच समिति ने फर्जी पाया।
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जांच समिति द्वारा इन पुलिसवालों पर हत्या का मुकदमा चलाने की सिफारिश भी की गई है।
पाठकों को याद होगा कि जब यह एनकाउंटर हुआ था, तब लोगों ने पुलिस का समर्थन करते हुए भारी जश्न मनाया था, जबकि दूसरी ओर जब भी कभी पुलिस एनकाउंटर होते हैं तो उन पर तमाम सवाल भी खड़े हो जाते हैं। प्राय: ऐसा मान लिया जाता है कि पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर फर्जी ही होते हैं। एनकाउंटर कब और कैसे होते हैं इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता। कानून की बात करें तो देश में मौजूद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) दोनों में ही एनकाउंटर का कोई भी जिक्र नहीं है। तो फिर सवाल उठता है कि पुलिस एनकाउंटर आखिर है क्या? यदि कोई भी पुलिसकर्मी आत्मरक्षा में सामने वाले पर गोली चलाता है तो उसे सामान्य भाषा में एनकाउंटर माना जाता है।
तो क्या पुलिस किसी भी अपराधी पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है? नहीं ऐसा नहीं है। जब कभी भी पुलिस को किसी अपराधी के बारे में सूचना मिलती है और वह उसे गिरफ्तार करने जाती है, तो अगर वो अपराधी आत्मसमर्पण कर देता है तब पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं कर सकती। यदि कोई अपराधी, जिसे उम्रक्रैद की सजा हो सकती है और वो गिरफ्तारी से बचने के लिए भागने का प्रयास करता है और पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती, तो उस सूरत में पुलिस उसे जख्मी करने की नीयत से उसके शरीर के किसी भी हिस्से में गोली मार सकती है। प्राय: ये गोली उसकी टांगों में मारी जाती है, जिससे वह ज्यादा दूर न भाग सके और उसे गिरफ्तार कर लिया जाए। यदि ऐसे किसी अपराधी के पास कोई जान लेवा हथियार होता है और वो पुलिस पर वार करता है, तो केवल उस सूरत में पुलिस उस पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है। मुंबई पुलिस के बहुचर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक और प्रदीप शर्मा से जब किसी पत्रकार ने पूछा कि मुंबई में अपराधियों की सफाई के लिए आप दोनो को ही श्रेय दिया जाता है तो, उनका कहना था कि, ‘हम तो अपराधियों को पकड़ने के लिए ही जाते हैं, लेकिन वो जब हम पर वार करते हैं तो हमें भी पलटवार करना पड़ता है।’ अपराधियों को भी पता है कि यदि वो पुलिस के हत्थे चढ़े तो कई सालों तक जेल के बाहर नहीं आएंगे। इसलिए इन सब से बच कर भागने के प्रयास में वे पुलिस की गोली का शिकार हो जाते हैं। उनके अनुसार 97-98 में जब मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक चरम पर था तब सरकार कड़े कानून ले कर आई।
अपराधी इन्हीं कड़े कानूनों से बचने की पुरजोर कोशिश में मारा जाता है। इसी के बाद से मुंबई के अंडरवर्ल्ड में एनकाउंटर का भय बढ़ने लगा। कारण चाहे कुछ भी रहे हों पर मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक थमने लगा। पुलिस एनकाउंटर को बॉलीवुड की कई फिल्मों में भी दिखाया गया है। जहां ज्यादातर एनकाउंटर को ऐसे दर्शाया जाता है कि भले ही वो एनकाउंटर फर्जी हो, लेकिन जांच में असली ही पाया जाए, लेकिन यदि किसी भी एनकाउंटर की योजना गलत नीयत से की जाती है तो वह आज नहीं तो कल पकड़ा ही जाता है। इस बात के कई प्रमाण भी हैं, जहां फर्जी एनकाउंटर पर पुलिस वालों के खिलाफ सजा भी हुई है। इसका मतलब यह नहीं होता कि सभी एनकाउंटर फर्जी होते हैं। जनता में पुलिस पर विश्वास की कमी होने के कारण ऐसी धारणा बन जाती है कि ज्यादातर एनकाउंटर फर्जी होते हैं। एक पूर्व आईपीएस अधिकारी ने दिल्ली में 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर का हवाला देते हुए बताया कि, पुलिस को ज्यादातर मामलों में इस बात का पता होता है कि वो जहां गिरफ्तारी करने जा रही है वहां कितना खतरा हो सकता है। ऐसे एनकाउंटर को एक सुनियोजित एनकाउंटर कहा जाता है। ऐसे एनकाउंटर में पुलिस की टीम पूरी तैयारी के साथ जाती है।
पुलिस एनकाउंटर में काफी खतरा होता है। पुलिसकर्मी भी घायल होते हैं, परंतु ऐसा मान लेना कि सभी एनकाउंटर फर्जी होते हैं सही नहीं। दोषियों को सजा देना अदालत का काम होता है न कि पुलिस का, लेकिन पुलिसकर्मी यदि आत्मरक्षा में गोली चलाता है तो उसे हमेशा गलत नहीं समझना चाहिए। एनकाउंटर जोखिम भरा होता है और ऐसा जोखिम हर कोई नहीं ले सकता। उसके लिए हथियारों को सही ढंग से चलाना और सामने वाले से बेहतर निशाना लगाना आना चाहिए। परंतु ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्राय: विवादों में भी घिरे रहते हैं। जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह कुछ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के घमंड और कभी-कभी उसके भ्रष्टाचार के चलते हर पुलिस एनकाउंटर को शक की निगाह से देखा जाता है। खासकर जब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के पाले हुए गुंडों का एंकाउंटर होता है तब तो जनता के मन में यह धारणा होती है कि ऐसे सभी एनकाउंटर फर्जी होते हैं।
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