अदालत : सवाल उठाने वाले कौन हैं?

Last Updated 24 May 2022 12:27:46 AM IST

यह कहना ठीक नहीं है कि ज्ञानवापी, कुतुबमीनार, मथुरा ईदगाह मस्जिद कृष्ण जन्मभूमि, ताजमहल आदि विवादों के कारण देश में वातावरण संतप्त हुआ है।


अदालत : सवाल उठाने वाले कौन हैं?

केंद्र में नरेन्द्र मोदी तथा प्रदेशों में भाजपा सरकार आने के बाद लगातार ऐसे विषय उभरते रहे हैं और भिन्न रूप में हम इस तरह का माहौल देखते आ आ रहे हैं। वैसे इन चारों मामलों की सच्चाई यही है कि पार्टी के स्तर पर भाजपा ने इन्हें सतह पर नहीं लाया है।
न्यायालय में आम लोग इन मुद्दों को लेकर गए थे। कुतुबमीनार पर भी जो प्रदर्शन हुए उनमें अलग-अलग संगठनों या समूहों के लोग शामिल थे, लेकिन हिंदुत्व और ऐसे विवादित धर्मस्थलों का मामला जब भी उठेगा तो विरोधी भाजपा और संघ का ही नाम लेंगे और यह अस्वाभाविक नहीं है। सत्ता के साथ-साथ संगठन के रूप में भी सर्वाधिक शक्ति इन्हीं के पास है और ऐसे मुद्दे उठाने वालों को हर तरह का सहयोग इनकी ओर से प्रत्यक्ष परोक्ष मिलता भी है। किंतु हम न भूलें कि पूरा मामला न्यायालय के फैसले से ही निर्धारित होता है। इस समय भी ज्ञानवापी और मथुरा श्री कृष्ण जन्मभूमि बनाम ईदगाह मस्जिद का मामला न्यायालयों के आदेशों के कारण ही यहां तक पहुंचा हुआ है। यह तो संभव नहीं कि कोई मामला तथ्य और तर्क के आधार पर न्यायिक निपटारे के लिए जाए तो न्यायालय उसे सुनने से इनकार कर दे। हमारे देश के न्यायालय कानूनी आधार पर ही मामले को स्वीकृत या खारिज करते हैं। अगर इन मामलों को न्यायालय ने स्वीकार किया तो साफ है कि अपीलकर्ताओं ने वैसे तत्व तर्क दिए हैं, जिनसे न्यायालय को लगा कि मामले सुनवाई और फैसले के योग्य हैं। इन मामले को न्यायालय में ले जाने या न्यायालय द्वारा सुनवाई करने के विरोध में भारत का कोई निष्पक्ष व्यक्ति नहीं है।

मुसलमानों में वैसे लोग जो मस्जिद समर्थक हैं या इनके आधार पर अपने समुदाय में जिनका महत्त्व बना हुआ है या वे भाजपा संघ विरोधी हैं और स्वयं को सेकुलर लिबरल मानते हैं, वही अलग-अलग तरीके से विरोध में आवाज उठा रहे हैं। देश का बहुमत या यूं कहे बहुसंख्य हिंदू समाज वर्षो से यह मानता रहा है कि उसके प्रमुख धर्मस्थलों को इस्लामी शासकों ने ध्वस्त कर मस्जिदें बनाई। यह केवल कपोल कथाओं पर आधारित विश्वास नहीं है। जो इसे कपोल कल्पना मानते हैं, उनके लिए भी यही उचित होगा कि एक बार इनका न्यायालयों में निपटारा हो जाने दें। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उन लोगों को निराश किया है जो मानते थे कि वाराणसी के सिविल कोर्ट द्वारा याचिका स्वीकार करने, सर्वे कराने और शिवलिंग के दावे के बाद उसे सील करने का आदेश कानून की दृष्टि से सही नहीं है। शीर्ष अदालत ने साफ कर दिया है कि सर्वे कराना और शिवलिंग के दावे के स्थान को सील करना गलत नहीं है। उसने यह भी कहा है कि अगर मामला दो धर्मो के बीच का यानी हाइब्रिड हो तो उसके धार्मिंक स्वरूप का निस्तारण करना पड़ता है। यह बात समझ से परे है कि जब ज्ञानवापी मस्जिद में श्रृंगार गौरी की पूजा वर्षो से होती आ रही थी तो उसे फिर से शुरू करने की अपील गलत कैसे हो गई? वास्तव में अयोध्या मामले में पहले 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय और बाद में 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद ही भारत के मुसलमानों के बीच यह झूठ फैलाया गया कि बिना तथ्य के बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर बनाने के लिए हिंदुओं को दे दी गई। टीवी चैनलों के डिबेट में आप देख रहे हैं कि कैसे न्यायालय को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने आस्था के आधार पर फैसला दे दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में ही लिखा कि आस्था और विश्वास के आधार पर टाइटल सूट यानी स्वामित्व का निर्धारण नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में साफ लिखा गया है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी खाली जगह पर नहीं किया गया था। विवादित जमीन के नीचे एक ढांचा था और यह इस्लामिक ढांचा नहीं था। न्यायालय ने यह भी कहा कि पुरातत्व विभाग की खोज इतने तथ्यपूर्ण और तार्किक हैं कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। हालांकि न्यायालय ने यह अवश्य कहा  कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की पुख्ता जानकारी नहीं है, लेकिन इससे आगे कहा कि मुस्लिम पक्ष विवादित जमीन पर दावा साबित करने में नाकाम रहा है। यानी मुस्लिम पक्ष ऐसा कोई साक्ष्य नहीं दे सका जिससे प्रमाणित हो कि उन्होंने खाली जगह पर मस्जिद निर्माण किया था। इसके ठीक विपरीत हिंदू पक्ष ने ऐसे अनेक प्रमाण दिए जिनसे उनका दावा मजबूत होता है। इस तरह के सारे तथ्यों को नकार कर आज तक दुष्प्रचार यही है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कानूनी तौर पर गलत है क्योंकि उसने लोगों की धार्मिंक आस्था को महत्त्व दे दिया। ठीक इसी तरह का माहौल इन मामलों में भी बनाने की कोशिश हो रही है।
आखिर दोनों पक्ष दावा कर रहे हैं तो उपाय यही है कि तत्काल अंदर बाहर सतह की पूरी फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी कराकर देख लिया जाए कि सच क्या है। कायदे से तो पूरा सव्रे ही सार्वजनिक होना चाहिए था। जो कुछ है उसे छिपाने की आवश्यकता क्या है?  हिंदू पक्ष तो ऐसा नहीं कर रहा। लिखना न्यायालय का आदेश एक बात है, लेकिन अगर मस्जिद का दावा सच है तो फिर सर्वे के सार्वजनिक होने से डर क्यों? अगर सर्वे में शिवलिंगनुमा आकृति दिखी है जो कि लंबे समय से कायम मान्यताओं, कथाओं तथा ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप है तो उसे सुरक्षित करने तथा वजूखाना को सील करने का आदेश ही सर्वाधिक उपयुक्त रास्ता था। सर्वोच्च न्यायालय ने नमाज पढ़ने तथा वजू के लिए अलग व्यवस्था करने की जो बात कही उत्तर प्रदेश प्रशासन उसे क्रियान्वित कर रहा है।
इसी तरह कृष्ण जन्मभूमि ईदगाह मामले में भी न्यायालय के विरु द्ध माहौल बनाया जा रहा है क्योंकि उसने कह दिया है कि 1991 का पूजा स्थल कानून इसमें लागू नहीं होता। ध्यान रखिए, दोनों मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ले जाए गए और वहां से खारिज हुए। मुसलमानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले आम मुसलमानों में भी गलतफहमी पैदा कर रहे हैं। पूरे भारत के मुसलमानों के प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले इन चेहरों की सच्चाई कुछ और है। जाहिर है, न्यायालय सहित सभी को मुस्लिम विरोधी बताने वाले ऐसे तत्वों का प्रभावी और आक्रामक तरीके से विरोध करना होगा ताकि फैलाए जा रहे झूठ और आशंकाओं का पूरी तरह खंडन हो सके।

अवधेश कुमार


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