मीडिया : मीडिया और नये आंदोलन

Last Updated 13 Feb 2022 12:27:56 AM IST

और कुछ हुआ हो या नहीं, लेकिन इतना अवश्य हुआ है कि ‘नये अस्मितामूलक’ आंदोलनों ने अपने को न केवल मीडिया के लिए बनाया है, बल्कि मीडिया के जरिए अपने को ‘ऑल इंडिया’ ही नहीं, ‘ग्लोबल’ भी बनाया है।


मीडिया : मीडिया और नये आंदोलन

यों भी कहा जा सकता है कि मीडिया स्वयं ऐसे आंदोलनों की खबर की तलाश में रहता है। मीडिया की इस जरूरत को आंदोलनकारी तो जानते ही हैं, मीडिया भी उनकी जरूरत जानता होता है। मीडिया ही उनका आकार तय करता है, उनकी प्रतिक्रिया को आकार देता है, और उनकी अवधि तय करता है कि कोई आंदोलन कब तक चलना है। कह सकते हैं कि ऐसे आंदोलन पहले दिन से मीडिया को ‘सैट’ करके रखते हैं। उसी के जरिए खेलते हैं, और ताकत बटोरते हैं। इसलिए उनमें कुछ ज्यादा जिद, कुछ बढ़ी हुई नाराजी और असहिष्णुता नजर आती है।
इस मीडिया युग में कोई भी नया आंदोलन जितना ‘जमीन’ पर होता है, उससे कई गुना बड़ा मीडिया में दिखलाई पड़ता है। इस प्रक्रिया में ऐसे आंदोलनों के साथ ‘दो प्रकार की घटनाएं’ घटती हैं : कुछ दिन बाद आंदोलनों का आरंभिक रूप बदल जाता है। उसमें ऐसे तत्त्व घुस पड़ते हैं, जो ‘एनजीओजीवी’ या ‘आंदोलनजीवी’ होते हैं। इस प्रक्रिया में आंदोलन का मूल एजेंडा भी बदल जाता है, और कई बार आंदोलन चलाने वालों के हाथ से भी यह निकल जाता है।
तीसरी बात यह होती है कि ऐसे आंदोलन अंतत: इतने ‘मीडिया निर्भर’ हो जाते हैं कि अपने साक्षात् जमीनी  मुददों से कट जाते हैं, और अंतत: ‘शो’, तमाशे और  एक प्रकार की ‘अदाकारी’ में बदल जाते हैं, अपनी धार खो देते हैं। मीडिया के ‘प्रोमो’ का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। हम जानते हैं कि मीडिया की मूल प्रकृति हर चीज को मारकेट करने की होती है, वह इस तरह के आंदोलनों को भी बेचने लगता है, उनका ‘बाजार’ बनाने लगता है। इस तरह ऐसे हर आंदोलन को ‘सेल’ के नये आइटम बदल देता है। मीडिया और नये आंदोलनों का रिश्ता कुछ इसी तरह का बनने लगा है।
खबर चैनलों के विस्फोट से पहले के दौर में मीडिया और आंदोलनों का रिश्ता इस तरह का नहीं था। तब बहुत से आंदोलन दो-चार या दस-बीस दिन चल कर गायब हो जाया करते थे। कहीं हड़ताल होती तो किसी अखबार में एकाध लाइन की खबर बनती, कहीं दंगा होता तो एकाध दिन की खबर बनती और फिर मर जाती क्योंकि खबर चौबीस घंटे बाद छपती। उसका ‘फॉलो-अप’ कम ही होता और खबर मर जाती। तब एक कहावत भी चलाकर करती थी कि कोई भी खबर दो-चार दिन से अधिक नहीं जीवित रहती। बड़ी से बड़ी खबर सात दिन में अपनी मौत मर जाती है।
लेकिन खबर चैनलों के युग में कोई खबर अपनी मौत नहीं मरती, बल्कि वीडियो के रूप में जिंदा रहती है, और सोशल मीडिया के इन दिनों तो ‘अनेकरूपा’ बन कर सबके लिए ‘कभी भी देखने योग्य’ बनी रहती है। ‘अनेकरूपा’ बनकर हर खबर झगड़े की जगह भी बन जाती है, और चैनलों और सोशल मीडिया में यह झगड़ा ऊपर से नीचे तक लोगों को ‘पक्ष’ या ‘विपक्ष’  लेने को मजबूर करता है। इसलिए भी हर मुद्दा ‘सबका’ का मुद्दा बनने लगता है। उदाहरण के रूप में पिछले दो साल में उठे ‘तीन आंदोलनों’ का अघ्ययन कर सकते हैं : पहला ‘शाहीन बाग आंदोलन’, दूसरा ‘किसान आंदोलन’ और तीसरा ‘हिजाब आंदोलन’।
‘शाहीन बाग आंदोलन’ का मीडिया से वैसा ही अंतर्सबंध रहा जैसा ‘किसान आंदोलन’ से रहा। कभी-कभी लगता है मानो मीडिया के लिए ही ये आंदोलन बने। ये ‘धरने’ मीडिया में आकर ‘शो’ बनने लगे। हर धरना मीडिया के कैमरों में ‘आकषर्क सीन’ या ‘तमाशा’ जैसा बना नजर आता। इन आदोलनों के सीनों को मीडिया में लाइव और चाबीस बाई सात के हिसाब से देखकर लोग उनको देखने जाते। धरने की जगहें ‘टूरिस्ट स्पॉट’ बननी लगीं। धरने वाले नये ‘हीरो हीरोइनें’ बनने लगे : वे ठंड में बैठे हैं। कष्ट सह रहे हैं। मीडिया में यह ‘हाइलाइट’ होता। धरने से पैदा होते ‘जाम’ के कारण बाकी जनता को कष्ट हो रहा है, यह बात किनारे हो जाती। एक का कष्ट दिखता। दूसरे का न दिखता। मीडिया में दिन-रात दिख कर आंदोलनकारियों में जिद, नाराजी और  अहंकार भी बढ़ता दिखा। ‘शो’ अंतत: यही करता है।
शुरू की हमदर्दी अंतत: आदोलन की चमक में खोती गई। किसी के हाथ कुछ न लगा। सत्ता और कठोर होती दिखी और आदोलनों में खिसियाहट और कोरा क्षोभ बचा रह गया। समकालीन ‘हिजाब आंदोलन’ इसी गति को प्राप्त हो रहा है। पहले क्षण में ही ‘शो’ की तरह नजर आया है, और अंतत: जिद और खिसियाहट में बदलता दिखेगा। सत्ता का कुछ न बिगड़ेगा लेकिन ऐसे आंदोलनों की साख कम होती जाएगी।

सुधीश पचौरी


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