चौरी-चौरा : न मिटाई जाने वाली शहादत

Last Updated 04 Feb 2022 12:52:20 AM IST

इन दिनों टीवी और अखबारों में आजादी के अमृत महोत्सव के संदर्भ में राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नायकों के व्यक्तित्व और स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित उनकी भूमिका चर्चा का विषय बने हुए हैं।


चौरी-चौरा : न मिटाई जाने वाली शहादत

महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और वी.डी. सावरकर इसके उदाहरण हैं। यानी इतिहास के नाम पर हम बड़े नायकों के बारे ज्यादा सुनते और चर्चा करते हैं, जबकि उन आम नायकों-किसानों, काश्तकारों, श्रमिकों, बुनकरों और दस्तकारों की शहादत के बारे में भी जानना और समझना बेहद जरूरी है, जिन्होंने इतिहास की दिशा एवं दशा को बदला।
इन गुमनाम नायकों ने आजादी के हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति देकर अपने योगदान को अविस्मरणीय बनाया। वस्तुत: आजादी के अमृत महोत्सव के तत्वावधान में इनके जिक्र के बगैर भारत के स्वाधीनता आंदोलन की कहानी पूरी नहीं होती। इसी परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी के ‘असहयोग आंदोलन’ की 100 वीं वषर्गांठ के अवसर पर यह जानना बेहद जरूरी है कि 12 फरवरी 1922 को जब महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आंदोलन को स्थगित करने यानी वापस लेने की घोषणा  की तो गांधी जी के इस निर्णय से कांग्रेस संगठन के कद्दावर नेता-मोतीलाला नेहरू, चितरंजन दास और सुभाष चंद्र बेहद नाराज हुए। सुभाष चंद्र बोस ने त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, ‘ऐसे समय में जब आवाम का उत्साह पूरे उत्कर्ष पर था आंदोलन वापस लेने की घोषणा करना किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है।’

महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने के लिए गोरखपुर के चौरी-चौरा कांड को जिम्मेदार माना। चौरी-चौरा कांड भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की वो ऐतिहासिक घटना है, जिसने पूरे क्रांतिकारी आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। चौरी-चौरा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के नजदीक एक कस्बा है, जहां 4 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलनकारियों ने ब्रिटिश सरकार की हिंसक कार्रवाई के बदले में स्थानीय पुलिस चौकी को घेरकर उसमें आग लगा दी थी।  इस घटना ने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया। दरअसल, चौरी-चौरा का घटनाचक्र गरीब काश्तकारों व खेतिहर मजदूरों का वह सशस्त्र विद्रोह था, जिसके निशाने पर अंग्रेज बेशक थे, किंतु आमजनों का यह आक्रोश उन पूंजीवादी व जमींदारपरस्त नीतियों के खिलाफ भी था, जिनकी वजह से आवाम का जीना मुहाल हो गया था। यदि इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो असहयोग आंदोलन के स्थगन की नींव तो दमनकारी ब्रिटिश हुकूमत ने ग्यारह दिन पहले ही रख दी थी, जब 1 फरवरी 1922 को मुंडेरा बाजार में सरेआम काश्तकार भगवान अहीर और उनके दो साथियों को ब्रिटिश सरकार समर्थक जमींदारों की शह पर स्थानीय दरोगा गुप्तेर सिंह ने पीट-पीटकर लहूलुहान कर दिया। दरोगा की इस बर्बर कार्रवाई से असहयोग आंदोलन के तमाम राष्ट्रवादी स्वयंसेवकों में आक्रोश फैल गया। आखिरकार 4 फरवरी 1922 को की सुबह डुमरी खुर्द गांव में अहिंसात्मक आंदोलन के प्रति आस्थावान किसानों, काश्तकारों व श्रमिकों की एक जनसभा आयोजित की गई, जिसका मकसद शांतिपूर्ण ढंग से चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन पहुंचकर गुप्तेर सिंह दरोगा से भगवान अहीर को निर्ममतापूर्वक पीटने का कारण जानना था। दोपहर 12 बजे के लगभग आंदोलनकारियों ने चौरी-चौरा थाने की ओर प्रस्थान किया ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारे लगाते हुए स्वयंसेवकों की भीड़ थाना परिसर के दक्षिण-पूर्व कोने से उत्तर दिशा में आगे बढ़ रही थी। 300 स्वयंसेवकों का जत्था जब पुलिस स्टेशन के गेट पर पहुंचा और दरोगा से उसके किए पर माफी मांगने के लिए कहा तो दरोगा ने लाठीचार्ज का हुक्म दे दिया। गुस्साई भीड़ ने पुलिसकर्मिंयों पर पथराव शुरू कर दिया, उसके बाद सिपाहियों ने फायरिंग कर दी। गोलीबारी से कई आंदोलनकारी मारे गए। इससे गुस्साई भीड़ ने पुलिसकर्मिंयों को घेरकर थाने में आग लगा दी और दरोगा सहित 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गांधीजी ने घटना से क्षुब्ध होकर 12 फरवरी को आंदोलन स्थगित कर दिया।
गांधी जी द्वारा लिये गए इस निर्णय की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। जिन लोगों ने गांधी जी के आह्वान पर सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र दे दिया था, स्टूडेंट्स ने स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार किया था, वे स्वयं को ठगा महसूस कर रहे थे। सेशन कोर्ट ने 172 स्वयंसेवकों को अभियुक्त ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई। जिला कांग्रेस कमेटी (गोरखपुर) ने अभियुक्तों की फांसी की सजा के विरुद्ध पंडित मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की। वकील मालवीय की पैरवी की बदौलत 19 स्वयंसेवकों को ही फांसी दी गई। चौरी-चौरा विद्रोह में दलित, पिछड़े, मुस्लिम, ब्राह्मण वर्ग से ताल्लुक रखने वाले छोटे किसान और खेतिहर मजदूर शामिल थे। सबाल्टर्न इतिहासकार शाहिद अमीन ने अपनी किताब ‘इवेंट, मेटाफर, मेमोरी-चौरी-चौरा 1922-1992’ में  जमींदारों व ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आमजनों के विद्रोह के रूप में चौरी-चौरा के ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित किया है। किसानों, काश्तकारों, श्रमिकों व बुनकरों की चौरी-चौरा कांड में शहादत समय की शिला पर उकेरी गई ऐसी वीरगाथा है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

डॉ. विनोद यादव


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment