मीडिया : आलोचना की वापसी और मीडिया

Last Updated 30 Jan 2022 01:57:36 AM IST

हवा बदलने लगी है। मीडिया की नजरें और तेवर बदलने लगे हैं। भाषा आलोचनात्मक होने लगी है।


मीडिया : आलोचना की वापसी और मीडिया

चैनलों के एंकर आजकल कुछ ऐसे सवाल भी कर उठते हैं, जो भाजपा प्रवक्ताओं को बेचैन कर देते हैं, उनको अकेला छोड देते हैं जबकि कुछ पहले तक कई भक्त एंकर भाजपा के अधिकृत प्रवक्ताओं से भी अधिक भाजपावादी दिखा करते थे।
कई एंकर अपने को कभी-कभी इतना तटस्थ सा दिखाने लगते हैं जैसे उनका कोई पक्ष ही न हो। कई बार भाजपा वालों से ही कुछ टेढ़े सवाल कर लेते हैं, और कई बार भाजपा प्रवक्ता हकबकाए से नजर आते हैं। यद्यपि कई चैनलों के ‘ओपिनियन पोल’ यूपी में भाजपा को अब भी जीतता हुआ दिखाते हैं, या कि हारते हुए भी ‘सबसे बड़े दल’ की तरह दिखाते हैं जैसा कि वृहस्पतिवार की रात को ‘टाइम्स नाउ’ के ‘पोल’ ने भाजपा को यूपी की 403 में से 213-231 सीट देकर दिखाया। फिर भी भाजपा प्रवक्ता ‘ओपिनियन पोलों’ की चरचाओं में ‘तीन सौ पार’ करने का दावा करते हैं, तो सपा वाले भी ‘तीन सौ पार’ का दावा करते नजर आते हैं।
बहसों को देखें तो सपा के प्रवक्ता एकदम आकामक तेवर अपनाते नजर आते हैं। फर्राटे से और जोर- जोर से बोलते हैं और कई बार भाजपा वालों को बोलने तक नहीं देते। एंकर रोके-टोके तो एंकर को ही ठोकने लगते हैं। सत्ता में आने से पहले चैनलों की बहसों को अपने पक्ष में कंट्रोल करने के लिए ठीक ऐसी ही आक्रामक तरकीबें भाजपा प्रवक्ता अपनाया करते थे। अब उन्हीं तरकीबों को सपा और कांग्रेसी प्रवक्ता अपनाने लगे हैं। भाजपा प्रवक्ता उज्ज्वला योजना, बिजली योजना, घर और टायलेट निर्माण योजना, अस्सी फीसदी को मुफ्त अनाज देने की योजना, गन्ना किसानों को पेमेंट, कुल मिलाकर ‘पंद्रह करोड़ लोगों को फायदा पहुंचाने’ की बात कहते हैं। राममंदिर का भव्य निर्माण, काशी विनाथ कॉरिडोर निर्माण, एक्सपेस वे का निर्माण, कई एम्स और कई विश्वविद्यालय खोलने की बात करते हैं, और उम्मीद करते हैं कि लोग उनके कामों को देख उनको वोट देंगे। उधर, विपक्षी विशेषकर सपा प्रवक्ता बार-बार बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की शहादत का मुद्दा उठाते हैं, हाथरस के रेप, लखीमपुर खीरी में रौंद दिए गए किसानों का मुद्दा उठाते हैं, और ‘बाबा’ को उनके ‘आश्रम भेजने’ का ऐलान करते हैं। बार-बार एक ही बोली बोलते हैं कि ‘भाजपा तो गई’, ‘भाजपा तो गई’!

कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया में नित्य प्रसारित आलोचनात्मक स्वर जिस तरह की ‘आलोचनात्मक जगह’ बनाते हैं, वैसी जगह सरकार की योजनाओं के बखान नहीं बनाते। कारण है मीडिया में आलोचनात्मक स्वरों की लंबी अनुपस्थिति। सोचिए, जो मीडिया अरसे तक सत्ता की आलोचना को किनारे करता रहा हो और सिर्फ एकतरफा सत्तावादी राग अलापता रहा हो और सवाल करने वाले को संदिग्ध और देशद्रोही की तरह देखता-दिखाता रहा हो और चुप करता रहा हो, उसमें आलोचना का जरा सा भी स्वर बड़ा बनकर गूंजता है। इन दिनों यही हो रहा है। आलोचना की एक कंकरी भी बड़े पत्थर की तरह नजर आ रही है। लंबी अनुपस्थिति के बाद मीडिया में आलोचना की वापसी ने ‘आलोचना’ को आकषर्क और प्रामाणिक बना दिया है। इसलिए किसानों द्वारा की जाती आलोचना और विपक्ष द्वारा की जाती आलोचना, उसमें भी सपा द्वारा की जाती आलोचना को नई स्वीकार्यता और वैधता मिलती दिखती है।
सबसे विचित्र बात है कि मीडिया की रोजमर्रा की बहसों में सत्ता और विपक्ष सिर्फ अपनी-अपनी डफली बजाते रहते हैं। वे अपने-अपने लोगों से बात करते रहते हैं, लेकिन एक दूसरे से बात नहीं करते। कहने की जरूरत नहीं कि अरसे तक जी हुजूर बने रहने वाला मीडिया जब सत्ता की ‘आलोचना’ को जरा भी हवा देता है, तो आलोचना की मूल्य बढ़ जाता है, और हजार कमियों के बाद भी आलोचक देवता नजर आने लगता है। सपा इन दिनों मीडिया का वैसा ही इस्तेमाल रही है, जैसा  सत्ता में आने से पहले भाजपा ने कांग्रेस के संदर्भ में किया था।
इसलिए भाजपा हतप्रभ सी दिखती है। एक बार फिर कह दें कि अरसे बाद मीडिया का रोल बदल रहा है क्योंकि कहीं न कहीं हवा बदल रही है, और अपना मीडिया किसी भी सत्तावान को नाराज करके नहीं जी सकता। मीडिया के तेवरों का बदलना वर्तमान सत्ता के लिए एक संकेत है, तो विपक्ष के लिए भी संकेत है कि मीडिया किसी का सगा नहीं होता। सिर्फ ‘सत्ता’ और ‘पत्ता’ का सगा होता है।

सुधीश पचौरी


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