सरोकार : शुचिता के सवालों में उन्हें न घेरें
इस बार यूपी चुनाव 2022 में एक राजनीतिक दल ने उम्मीदवार अर्चना गौतम को अवसर दिया है। इसके साथ ही वे चर्चा के केंद्र में आ गई हैं।
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दरअसल, मॉडल से राजनेता बनीं अर्चना की तस्वीरें इस समय सोशल मीडिया पर खूब चल रही हैं। बिकनी में तस्वीरों के वायरल होने के बाद अर्चना ने प्रतिक्रियास्वरूप मीडिया से उनके पेशे और राजनीतिक कॅरियर को मिक्स न करने का आग्रह किया है।
हस्तिनापुर विधानसभा सीट से कांग्रेस की इस उम्मीदवार को लेकर तरह-तरह की बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रही। अर्चना मिस बिकनी इंडिया 2018 का खिताब जीत चुकी हैं। उन्होंने मिस बिकनी र्वल्ड 2018 में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। मिस उत्तर प्रदेश 2014 और मिस कॉस्मो र्वल्ड 2018 भी रही हैं। उनके पेशे से जुड़ी कुछ बोल्ड तस्वीरों का हवाला देकर उनसे शुचिता और नैतिकता के प्रश्न पूछे जा रहे हैं। ऐतिहासिक और पौराणिक स्थान हस्तिनापुर की पवित्रता का सहारा लेकर उनसे शुचिता से जुड़े सवाल पूछे जा रहे हैं। जाहिर है कि मोरल पुलिसिंग के इस डंडे से येन केन प्रकारेण समूची जमात फिर कठघरे में है। बेसिरपैर के बेजा सवालों से उन्हें मानिसक रूप से परेशान किया जा रहा है। हालांकि कई महिला सांसदों और प्रतिनिधियों के बीच में आने और कड़ी टिप्पणी देने से सकारात्मक संदेश गया है पर यह स्थायी निष्कर्ष नहीं हो सकता।
मौजूदा प्रकरण को अतीत के आलोक में देखें तो पाते हैं कि कई ऐसे सफल टीवी कलाकार, प्रसिद्ध मॉडल और बड़े पर्दे की अभिनेत्रियां हुई हैं, जिन्होंने अपने कॅरियर की दूसरी इनिंग में राजनीति की सफल पारी खेली। इसका कतई मतलब नहीं कि उनके अतीत के पन्नों को वर्तमान की किताब से जोड़ दिया जाए। निश्चित ही यह महिलाओं को कमतर दिखाने या आंकने की कोशिश है। यौन शुचिता जैसे विषय पर किसी को भी मोरल पुलिसिंग का अधिकार नहीं है। हर पेशे की अपनी कुछ तात्कालिकताएं और अनिवार्यताए होती हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। लेकिन उसकी आड़ में चारित्रिक छिद्रान्वेषण तो बिल्कुल उचित नहीं। यह न केवल मनोबल तोड़ने वाला है अपितु प्रगति के आगामी मार्ग को भी अवरु द्ध करने वाला है। सवाल है, और लाजिमी भी है, कि शुचिता, पवित्रता, पावनता और महानता आदि बड़े और भारी-भरकम नैतिकता वाले शब्द केवल महिलाओं के हिस्से ही क्यों? ऐसे सवाल तो चारित्रिक दोष वाले दागदार प्रतिनिधियों के हिस्से भी वाजिब तौर पर आने चाहिए। बात तभी बनेगी।
समय आ गया है कि आधी आबादी को बख्शा जाए और कुछ सवाल दूसरी ओर भी उछाले जाएं। वैसे भी शुचिता और पवित्रता के इम्तिहान से हर बार महिलाएं ही गुजरी हैं। हस्तिनापुर में उनके होने के निहितार्थ ढूंढने की बजाय पेशे और राजनीतिक कॅरियर-दो अलग-अलग चीजों-को एक करने की उलझन से इतर कुछ सकारात्मक पहलुओं पर भी बात की जाए। राष्ट्र, राज्य और समाज का भला विकासोन्मुख कार्यों से होता है, न कि ऐसी सतही और मामूली बातों को केंद्र में रखने से। समय नैतिक पुलिसिंग का नहीं, त्वरित विकास का है। कम से कम महिला प्रतिनिधियों को तो इससे दूर ही रखा जाए क्योंकि राजनैतिक दायित्व के रूप में उन्हें मीलों लंबी सीढ़ी चढ़नी है, और देश, समाज के प्रति बड़े दायित्वों का निर्वहन करना है। बेहतर हो कि उनकी राह का रोड़ा न बना जाए, नैतिक पुलिसिंग से बचा जाए।
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