मीडिया : पिछले बरस मीडिया
हवा बदलने लगी है तो मीडिया भी बदलने लगा है। चैनल और एंकर जो गत वर्ष के शुरू में बात-बात में राष्ट्रवादी हो जाते थे, अब हिचकने लगे हैं।
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उनसे भी कुछ कड़े सवाल पूछने लगे हैं जो अपने को राष्ट्रवादी कहते हैं। लेकिन यह तभी तक है जब तक यूपी का फैसला नहीं हो जाता। अगर योगी आते हैं तो मीडिया फिर मोदी-योगीवादी हो जाएगा। नहीं आते हैं तो मीडिया की जुबान और खुलेगी। पिछले बरसों में चैनलों का सत्ता के साथ जैसा नाभिनाल संबंध बना है, उसे देख विपक्ष ने इसे ‘गोदी मीडिया’ नाम दिया है, लेकिन गत बरस किसान आंदोलन शुरू हुआ तब से चैनलों में भी नया आलोचनात्मक वातावरण बना जिससे उसकी जुबान कुछ खुली। कई एंकर जो अपने को ‘राष्ट्रवादी’ कहा करते थे, आजकल ‘आफिशियल राष्ट्रवादियों’ से भी सवाल करने लगे हैं। बहुत से एंकर तो विपक्ष के प्रवक्ताओं को राष्ट्रवादियों से पहले खुद ही रगड़ने लगते थे। विपक्षी प्रवक्ता उन पर आरोप लगाते रह जाते थे कि तुम्हारा चैनल बिका हुआ है। तुम सत्ता के दलाल हो। वे चुप न होते तो एंकर उनकी बोलती बंद कर देते थे। अब ऐसा कम करते हैं।
आलोचना की यह जगह किसान आंदोलन ने बनाई। शुरू में मीडिया किसान आंदोलन के साथ दिखा लेकिन छब्बीस जनवरी के लालकिले के हुड़दंग के बाद मीडिया ने किसान आंदोलन की आलोचना शुरू की वो तब तक बनी रही जब तक वह हट नहीं गया। चैनलों में दूसरी आलोचनात्मक जगह बंगाल में ममता की जीत ने बनाई। इस जीत ने मीडिया को कुछ और बेधड़क किया। टीएमसी जैसी क्षेत्रीय पार्टी के प्रवक्ता अब टीवी की बहसों के हिस्से बनने लगे। सिद्ध हुआ कि मीडिया चढ़ते सूरज को सलाम करने का आदी है। मीडिया ‘शाहे वक्त’ को देखकर बात करता है। भले कहता रहे कि ‘सत्य के लिए कुछ भी कर सकता है।’
सारी सीमाओं के बावजूद मीडिया की गत बरस की असली उपलब्धि कोरोना की महामारी की कवरेज है। थाली बजाना, ताली बजाना, पीएम के कोरोना संबधी लाइव संबोधनों को अखंड भाव से दिखाना, कोरोना संबंधी आधिकारिक सूचनाओं को बराबर देते रहना, कोरोना उचित व्यवहार के संदेश देते रहना, मास्क की अनिवार्यता और सामाजिक दूरी तथा हाथ धोने की जरूरत को छोटे-छोटे फिलर्स के जरिए बताते रहना, केसों के बढ़ते-घटते आंकड़ों को लगातार बताना, लॉकडाउन और पलायन के बारे में बताना और अफवाहों से सावधान करते रहना, अस्पतालों की तैयारियों और कमियों को दिखाना, अस्पतालों के अंदर और बाहर ऑक्सीजन की कमी के कारण दम तोड़ते मरीजों को दिखाना, सड़कों पर जलते शवों को दिखाना, गंगा में तैरती लाशों को दिखाना, एक से एक बड़े देसी-विदेशी विशेषज्ञों से बात करके कोरोना के बदलते रूपों की चौबीस बाई सात के हिसाब से जानकारी देते रहना, टीका बनाने के लिए सरकार और संस्थाओं के प्रयत्नों को बताना, टीके की कमी के बारे में बताना, इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना, आम पब्लिक का डर कम करना और टीका अभियान के साथ खड़े रहना, टीका निंदकों को लिफ्ट न देना, गत वर्ष के खबर चैनलों की ऐसी सामाजिक भूमिका है, जिसकी तारीफ की जा सकती है।
इतनी बड़ी विभीषिका के बावजूद अगर अपने यहां अराजकता नहीं फैली और लोगों का आत्मविश्वास बना रहा तो इसमें बड़ी भूमिका मीडिया की है, जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह मीडिया की जनपक्षधर भूमिका रही जिसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। सर्वोपरि कुछ डाक्टरों की भूमिका भी मानीखेज रही जिनमें डॉ. गुलेरिया, डॉ. त्रेहन, डॉ. बगई व डॉ. पाल, डॉ. सेठ तथा अन्य बहुत से नाम आते हैं। इसी तरह बहुत सी ऑनलाइन डाक्टरी सलाह सेवाओं और दवा सेवाओं की जानकारियों के कारण लोगों को कुछ अभय मिला।
लेकिन मीडिया ने अपनी बहुत सी रिपोटरे से डर का माकरेट भी बनाया और यह भी महसूस कराया कि ‘कोरोना’ दुनिया की कुछ बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा पैदा की गई कोई ‘नई जीवन स्थिति’ तो नहीं? बहरहाल, एक बड़े अस्तित्ववादी संकट के दौर में मीडिया की उक्त भूमिका अध्ययन करने योग्य है। हमने अब तक मीडिया के विकासवादी मॉडल तो देखे हैं, लेकिन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के संदर्भ में मीडिया की बड़े सहायक की भूमिका का अध्ययन नहीं किया जबकि इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि कोरोना के प्रसंग में मीडिया ने वुहान के संदर्भ को लगभग भुला ही दिया है। ऐसा क्योंकर हुआ, इसका अध्ययन भी होना चाहिए।
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