स्मरण : क्रांति की ज्योति सावित्री बाई फुले
न्यूटन के गति के नियम केवल भौतिकी से संबंधित नहीं हैं। इनका संबंध समाजशास्त्र से भी है। कोई भी समाज तब तक जड़ रहता है जब तक कि कोई पहल न करे।
![]() स्मरण : क्रांति की ज्योति सावित्री बाई फुले |
पहल करने की अपनी शत्रे और परिस्थितियां होती हैं। क्या कोई कल्पना भी कर सकता है कि एक महिला ने 1840 के दशक में महिलाओं की मुक्ति के लिए सबसे अधिक आवश्यक शिक्षा को लेकर पहल की थी। यह कर दिखाया था 3 जनवरी, 1831 को शूद्र कृषक परिवार में जन्मीं भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले ने और वह भी केवल 17 की उम्र में।
1948 से 1951 के बीच एक के बाद एक उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए 18 स्कूल खोले।
उनकी पहल में सबसे बड़े साझेदार उनके पति जोतीराव फुले थे, जिन्होंने अपनी पत्नी को न केवल पढ़ाया, बल्कि अन्य महिलाओं को पढ़ाने के लिए भी प्रेरित किया। पति की ही प्रेरणा रही कि सावित्री बाई फुले का पूरा जीवन समाज में सबसे वंचित तबकों के लिए समर्पित कर दिया। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं था। जब वह पढ़ाने स्कूल जातीं तो लोग उन पर फब्तियां कसते, गोबर, कीचड़ आदि फेंकते। लेकिन यह तो उन पर हो रहे हमले का बाहरी दृश्य था। दरअसल, उनके अपने ही परिजनों में भी रोष था कि शूद्र समाज की महिला कैसे घर से बाहर निकल कर स्कूल पढ़ाने जा सकती है।
उनके ससुर ने तो पति-पत्नी, दोनों को ही अपने घर से निकाल बाहर किया था। इसके बाद फुले दंपति के लिए चुनौतियां पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई। लेकिन पति-पत्नी, दोनों ने ही उत्साह बनाए रखा और दृढ़ निश्चय के साथ समाज सेवा का अपना सरोकार मजबूत बनाए रखा। सावित्री बाई फुले का कार्यक्षेत्र स्कूल चलाने और खोलने तक सीमित नहीं था। 1873 में फुले द्वारा स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ की वह सक्रिय सदस्या रहीं और अनेक गतिविधियों में भाग लिया। उनकी भागीदारी तब भी दिखी जब फुले दंपति ने विधवा महिलाओं के लिए आश्रम खोले। दरअसल, उन दिनों महिलाओं के पुनर्विवाह की परंपरा नहीं थीं।
ऊंची जातियों में तो विधवाओं को अपने पति के साथ सती होने तक के लिए मजबूर कर दिया जाता था या उन्हें आजीवन विधवा के रूप में रहना पड़ता था। ऐसे में वे पुरु षों के जुल्म का शिकार होतीं और गर्भवती हो जाया करती थीं। फिर समाज गर्भ को नष्ट करने के लिए उन पर दबाव बनाता था। ऐसी परिस्थिति में सावित्री बाई फुले विधवा आश्रम का विचार लेकर आई और पूरी बहादुरी के साथ ऐसी संस्थाओं का संचालन किया, जहां महिलाएं अपने उन बच्चों को जन्म दे सकती थीं, जिन्हें समाज अवैध कहता था। स्वयं फुले दंपति ने भी ब्राह्मण समाज की एक महिला के ऐसे ही बच्चे को गोद लिया जिसका लालन-पालन अपनी संतान के रूप में किया। उस संतान का नाम पड़ा यशवंतराव फुले।
सावित्री बाई फुले ने अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार अकाल और महामारियों से त्रस्त लोगों की सेवा के लिए भी किया। 1877 में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा। हजारों लोग उससे प्रभावित हुए। अप्रैल, 1877 में सावित्री बाई फुले ‘सत्यशोधक समाज’ के कार्यकर्ताओं के साथ पश्चिमी महाराष्ट्र के जुनेर परिक्षेत्र में थीं। वह इलाका भी अकाल से बुरी तरह प्रभावित था। साहूकारों की सूदखोरी और जमाखोरी से हालात दिन-ब-दिन विषम होते जा रहे थे। यहां तक कि दंगे भी होने लगे। सावित्री बाई फुले ने अपने कार्यकर्ताओं को दंगे शांत करने में लगा दिया। खुद डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर से मिलीं।
वहां से 20 अप्रैल, 1877 को उन्होंने जोतीराव फुले के नाम एक पत्र लिखा, ‘वर्ष 1876 बीत चुका है। लेकिन अकाल नहीं गया। इस क्षेत्र में वह भीषण विभीषिका के रूप में ठहरा हुआ है। लोग भूख से मर रहे हैं। जानवर जमीन पर गिरकर दम तोड़ रहे हैं। यहां भोजन का बेहद अभाव है। जानवरों के लिए चारा नहीं है। लोग अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर हैं। कुछ लोग अपने बच्चों को, अपनी जवान लड़कियों को बेचकर गांव छोड़कर जा रहे हैं। नदी-नाले और तालाब पूरी तरह सूख चुके हैं। पीने के लिए पानी नहीं है। पेड़ सूखते जा रहे हैं, उनके पत्ते झड़ चुके हैं। सूखी, बंजर धरती में दरारें पड़ चुकी हैं। सूरज जला और झुलसा रहा है। लोग भोजन और पानी के लिए चिल्लाते-चिल्लाते धरती पर गिरकर दम तोड़ रहे हैं। भूख से व्याकुल कुछ लोग जहरीले फल खाने को विवश हैं। प्यास बुझाने के लिए वे अपना ही मूत्र पीने को मजबूर हैं। वे भोजन-पानी के लिए हा-हाकार करते हुए दम तोड़ रहे हैं।’
1890 में 28 नवम्बर को जोतीराव फुले के निधन के बाद भी सावित्री बाई फुले ने साहस नहीं खोया। 1893 में ‘सत्यशोधक समाज’ का सम्मेलन सासवद में हुआ। सावित्री बाई फुले ने उसकी अध्यक्षता की। ऐसी थीं क्रांति की ज्योति सावित्री बाई फुले। उनका निधन 10 मार्च, 1897 को तब हुआ जब वह प्लेग के रोगियों की सेवा कर रही थीं।
| Tweet![]() |