किसान दिवस : किसानों की दमदार आवाज चरण सिंह

Last Updated 23 Dec 2021 03:20:28 AM IST

देश 23 दिसम्बर को किसान दिवस के रूप में मनाता है। 23 दिसम्बर देश के पांचवे प्रधानमंत्री और किसानों व खेतिहर श्रमिकों के मसीहा चौधरी चरण सिंह की जयंती है।


किसान दिवस : किसानों की दमदार आवाज चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को वर्तमान गाजियाबाद जनपद की बाबूगढ़ छावनी के नूरपूर गांव में हुआ। साधारण कृषक परिवार में जन्मे चरण सिंह ने युवावस्था में गांधी जी के नमक सत्याग्रह के दौरान गाजियाबाद क्षेत्र में कांग्रेस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 6 महीने कारावास में बिताए। जेल में रहकर  ‘मंडी बिल’ व ‘कर्जा कानून’ नामक दो पुस्तकें लिखीं जिनमें किसानों और खेतिहर मजदूरों के दुख-दर्द व पीड़ाओं का मार्मिंक वर्णन है। 1937 में ब्रिटिश भारत के दौरान प्रांतीय विधानसभाओं के लिए देश में पहली बार चुनाव हुए तो वे मेरठ जिले (अब बागपत जिला) की छपरौली विधानसभा सीट से निर्वाचित हुए। उन्होंने ब्रिटिश शासन समर्थित खेकड़ा गांव के बड़े जमींदार चौधरी दलेराम को भारी मतों से पराजित किया। 1937 से 1977 तक यानी लगातार 40 वर्षो तक विधानसभा में छपरौली सीट प्रतिनिधित्व किया।
ग्रामीण देनदारों को राहत प्रदान करने वाले ‘पहले ऋण मुक्ति विधेयक-1939’ के मसौदे को तैयार करने एवं लागू कराने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी दौरान वे मझोले किसानों, छोटे काश्तकारों व खेतिहर श्रमिकों के प्रबल पैरोकार के रूप में उभरे। उप्र सरकार में 1952 में कृषि एवं राजस्व मंत्री बने तो किसानों को पहली बार अहसास हुआ कि उनका सच्चा हितैषी सत्ता के गलियारों में पहुंचा है। उनके प्रयासों के फलस्वरूप सरकार ने भूमि सुधार के दो बड़े कानून-1952 में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और 1960 में अधिकतम जोत-सीमा आरोपण अधिनियम लागू कर दिए। वस्तुत: चरण सिंह ने अपने राजनैतिक जीवन  के शुरुआती दौर से ही जमाखोरी और मुनाफाखोरी के लिए उत्तरदायी बिचौलिया पद्धति के विरुद्ध आवाज उठाई। जमींदारी उन्मूलन एक्ट के तहत राज्य और खेतिहरों के बीच बिचौलियों की भूमिका निभा रहे जमींदारों व ताल्लुकदारों को हटाकर कृषक-शोषण पर लगाम लगा दी गई। जिन जमीनों पर भूमिहीन अनुसूचित जाति एवं दलित वर्ग के लोगों ने घर बना रखे थे, ऐसे लाखों लोगों को उन घरों का मालिकाना हक दे दिया गया। इस प्रकार उन्होंने ने एक नये सामाजिक ढांचे की स्थापना कर उप्र के ग्रामीण परिवेश का कायाकल्प करने में महती योगदान दिया।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बुनियादी विसंगतियों का मार्मिंक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडियन पॉवर्टी एंड इट्स सोल्यूशन’ में किया है। उन्होंने यह किताब 1959 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के प्रत्युत्तर में लिखी। गौरतलब है कि  नागपुर अधिवेशन में सोवियत संघ की आधारभूत संयुक्त सहकारी कृषि व्यवस्था को लागू करने का प्रावधान किया गया था। चरण सिंह ने पुस्तक में प्रबल ढंग से मत व्यक्त किया कि सोवियत प्रकार की सामूहिक कृषि भारत में सरासर अनुपयुक्त, अवांछनीय और असाध्य है।
दरअसल, कांग्रेस ने नागपुर प्रस्ताव में कृषि संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए बड़े पैमाने पर सहकारी कृषि क्षेत्रों के निर्माण को अपना मुख्य उद्देश्य घोषित किया। किताब में उन्होंने सहकारी कृषि व्यवस्था के दोषों को उजागर करते हुए खेतिहरों के स्वामित्व वाली प्रचलित कृषि व्यवस्था को मजबूत बनाने पर बल दिया। कृषि उत्पादों का समुचित मूल्य निर्धारण, संसाधनों का विवेकपूर्ण बंटवारा, भू-राजस्व का सुव्यवस्थित निर्धारण, भूमि चकबंदी जैसे मुद्दों को सदैव बुलंद रखा। अधिकतम जोत-सीमा आरोपण अधिनियम खास तौर पर उप्र में बड़े पैमाने पर भूसंपत्तियों के दोबारा वितरण और बड़ी भूसंपत्तियों के आकार को कम करने के विचार से तैयार किया गया।
उन्होंने हमेशा नौकरशाही तंत्र के विस्तार एवं उसके भ्रष्टाचार का पुरजोर विरोध किया जिसे वे ग्रामीण संसाधनों के लिए घातक मानते थे। किसानों व पिछड़े वर्ग के लोगों की आबादी का 80.2 फीसदी भाग गांवों में बसता है। इसलिए उन्होंने नारा दिया था-‘देश की खुशहाली का रास्ता गांवों के खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है।’ वैचारिक तौर पर चरण सिंह किसी दक्षिणपंथी या वामपंथी विचारधारा से बंधे हुए नहीं थे। कृषि सुधारों को अहमियत देने की वजह से ही वे उप्र ही नहीं, बल्कि समूचे भारत में किसानों व काश्तकारों के मसीहा के तौर पर पहचाने  गए। गहन औद्योगीकरण की नीति के मुखर विरोधी थे, चरण सिंह की वैकल्पिक आर्थिक  योजना आम तौर पर खेती-किसानी मुख्यत: मझोले किसानों व खेतिहरों को लाभ देने वाली है। वे ‘पूंजीवादी खेती’ के खिलाफ थे। स्पष्ट तौर पर उनका कहना था-‘जो जमीन को जोते-बोए, वह जमीन का मालिक है।’ स्वामित्व योजना के अंतर्गत किसानों व खेतिहरों को उनकी रहवासी भूमि का मालिकाना हक देकर आर्थिक सशक्तिकरण की मुहिम को तेज किया जाना बेहद जरूरी है। देश के 75 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास अपनी आजीविका चलाने के लिए पर्याप्त कृषि भूमि नहीं है, उनके लिए गैर-कृषि विकल्प खोजने आवश्यक हैं। परंपरागत फसल उत्पादों के अलावा फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(लेखक इतिहासकार हैं)

डॉ. विनोद यादव


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