जलवायु परिवर्तन : सही नहीं धनी देशों का रवैया

Last Updated 10 Nov 2021 12:52:36 AM IST

इन दिनों जलवायु बदलाव की समस्या की गंभीरता पर बहुत चर्चा होती है। विशेषकर ग्लासगो में आयोजित जलवायु बदलाव पर संयुक्त राष्ट्र संघ महासम्मेलन के आयोजन से तो यह विमर्श और आगे बढ़ा है।


जलवायु परिवर्तन : सही नहीं धनी देशों का रवैया

फिर भी जब इस विषय पर विकासशील और निर्धन देशों से न्यायसंगत व्यवहार का सवाल उठता है तो प्राय: धनी देश उम्मीद के अनुकूल व्यवहार नहीं करते। उनकी कथनी तथा करनी में बहुत अंतर नजर आता है।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर, धनी देशों की विकासशील और निर्धन देशों के प्रति जो जिम्मेदारी बनती है, वे इसे ठीक से क्यों नहीं निभा रहे। पहले औद्योगीकरण करने वाले धनी देशों ने ही ऐतिहासिक स्तर पर सबसे अधिक फॉसिल फ्यूल या जीवाश्म ईधन का उपयोग किया। उन्होंने ही उपनिवेशों की लूट की और ऐसी जीवनशैली अपनाई जिससे अत्यधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। अत: जलवायु बदलाव के संकट की समझ बनने के आरंभिक वर्षो में उन्होंने स्वीकार किया कि हालांकि इस संकट का सामना करने के लिए जरूरी कदम सभी देशों ने उठाने हैं, पर इसके लिए धनी देशों की जिम्मेदारी अधिक है। इस समझ के अनुसार ही उन्होंने 100 अरब डॉलर वाषिर्क के कोष की स्थापना का वादा 2009 में किया। इस वादे के साथ कि इससे विकासशील और निर्धन देशों को जलवायु बदलाव संबंधी नियंत्रण और अनुकूलन के कार्यों में सहायता दी जाएगी। इस वाषिर्क कोष की स्थापना 2020 तक हो जानी चाहिए थी, पर  2021 में भी यह लक्ष्य नहीं प्राप्त किया गया।

इसमें सबसे बड़ी कमी पाई गई कि जहां इस कोष के लिए राशि अनुदान के रूप में प्राप्त होने की उम्मीद थी, वहां अधिकांश राशि कर्ज के रूप में मिली। हालांकि इसकी ब्याज दर प्राय: सामान्य से कुछ कम रखी गई। जो राशि जलवायु बदलाव का संकट कम करने के लिए दी जा रही है, उसको कर्ज के रूप में देना कतई उचित नहीं है अपितु इसे अनुदान के रूप में ही देना चाहिए। पर 2018-19 में अनुमान लगाया गया कि जलवायु बदलाव कोष के लिए प्राप्त राशि का 80 प्रतिशत हिस्सा कर्ज के रूप में दिया गया। इस तरह वास्तव में 2020 में 100 अरब डॉलर की जगह 16 अरब डॉलर की व्यवस्था हो सकी। इसके अतिरिक्त, अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या की गंभीरता और इसके नियंत्रण और अनुकूलन से जुड़े कार्यों की व्यापकता को देखते हुए 100 अरब डॉलर वाषिर्क की व्यवस्था भी बहुत कम है और वास्तव में धनी देशों की जिम्मेदारी इससे कहीं ज्यादा की बनती है।
यदि हम कुछ अन्य तुलनात्मक आंकड़ों को देखें तो यह स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी। अमेरिका में यानी केवल एक धनी देश में एक वर्ष में केवल शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च होते हैं। अमेरिका के साथ यूरोपियन यूनियन के देशों को जोड़ कर देखा जाए तो यहां केवल एक वर्ष में केवल सिगरेट पर 210 अरब डॉलर से अधिक खर्च होता है। केवल अमेरिका में छात्रों की शिक्षा के लिए बकाया कर्ज की राशि 1700 अरब डॉलर है। विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन करने वाली फ्रांस की केवल एक कंपनी की परिसंपत्तियां 133 अरब डॉलर की हैं।
विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा 13000 अरब डॉलर की है। यदि उन पर केवल 2 प्रतिशत टैक्स जलवायु बदलाव के कार्यों के लिए लगाया जाए तो इससे जलवायु बदलाव के प्रकोप को कम करने के कार्यों के लिए 260 अरब डॉलर प्राप्त किए जा सकते हैं। चार सबसे बड़े अरबपति ऐसे हैं, जिनमें से हरेक की संपदा 100 अरब डॅालर से अधिक है। विश्व के 10 सबसे बड़े अरबपतियों की संपदा ही 1153 अरब डॉलर है। 2020-21 के दौरान विश्व के सभी अरबपतियों की संपत्ति में 5000 अरब डॉलर की वृद्धि हुई और इस वृद्धि में से मात्र 5 प्रतिशत को यदि निर्धन और विकासशील देशों में जलवायु बदलाव के कार्यों के लिए प्राप्त कर लिया जाए तो लगभग 250 अरब डॉलर की प्राप्ति हो सकती है। यदि विश्व की कुल मनी लांड्रिंग को देखा जाए तो एक वर्ष में धन के अनुचित और अवैध उपयोग की राशि (संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार) लगभग 1600 अरब डॉलर है। इसे नियंत्रित कर यदि इसका 10 प्रतिशत भी जलवायु बदलाव से जुड़े जरूरी कार्यों में हो सके तो इस तरह 160 अरब डॉलर एक वर्ष में प्राप्त हो सकते हैं। विश्व में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का कुल मूल्य एक वर्ष में 17000 अरब डॉलर हैं और इसकी तुलना में 100 अरब डॉलर की राशि तो बहुत ही कम है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर एक प्रतिशत की दर से कर इस दृष्टि से लगाया जाए तो निर्धन और विकासशील देशों में इस सार्थक कार्य के लिए 170 अरब डॉलर की राशि प्राप्त हो सकती है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो 100 अरब डॉलर के विश्व कोष की व्यवस्था जलवायु बदलाव जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए करना और निर्धन व विकासशील देशों तक इस सहायता को पहुंचाना कोई बड़ी बात नहीं है। निर्धन और विकासशील देशों के लिए विश्व स्तर पर जो जलवायु बदलाव कोष बन रहा है, वास्तव में उसकी राशि 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक होनी चाहिए, जैसा कि अफ्रीका के अनेक जलवायु बदलाव वार्ताकारों और विशेषज्ञों ने कहा है। मान लीजिए कि 200 अरब डॉलर का ऐसा विश्व स्तर का कोष बन सके और विकासशील व निर्धन देशों में अपनी जनसंख्या के अनुकूल भारत को इस सहायता से लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हो जाए तो इस 200 अरब डॉलर के कोष से भारत को 40 अरब डॉलर की सहायता प्राप्त हो सकती है। 40 अरब डॉलर का अर्थ है लगभग 3000 अरब रुपये या 300000 करोड़ रुपये और इस तरह की वाषिर्क राशि से निश्चय ही बहुत उपयोगी कार्य किए जा सकते हैं।
यह भी जरूरी है कि इन कार्यों को निर्धन वर्ग की रोजी-रोटी के लिए जरूरी ऐसे कार्यों से जोड़ा जाए जिनसे जलवायु बदलाव नियंत्रण व अनुकूलन भी जुड़ा हो। पर्यावरण रक्षा से जुड़ी कृषि, वनीकरण और वन-रक्षा, आपदाओं से रक्षा के कार्य इस दृष्टि से सबसे अनुकूल है। यह भी जरूरी है कि ये सभी कार्य पारदर्शिता, पूरी ईमानदारी से किए जाएं। इनके लिए ऐसी व्यवस्थाएं तैयार हों जिनमें पूर्ण पारदर्शिता व शून्य भ्रष्टाचार सुनिश्चित किया जा सके। ऐसा कर सके तो इस कार्य को विश्व स्तर पर प्रशंसा प्राप्त होगी और इस कार्य को और विस्तार देने का माहौल बनेगा। यह ऐसा अवसर है जहां निर्धन वर्ग और छोटे किसानों व मजदूरों की टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण की रक्षा के कार्यों को एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है।

भारत डोगरा


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