छठ पर्व : लोक और वैदिक संस्कृति का मेल

Last Updated 10 Nov 2021 12:48:56 AM IST

लोक आस्था के महापर्व छठ का पहला दिन जिसे ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है, सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है।


छठ पर्व : लोक और वैदिक संस्कृति का मेल

उसके बाद व्रती अपने नजदीक में स्थित गंगा नदी, जलाशय या तालाब में जाकर स्नान करते हैं। व्रती इस दिन नाखून वगैरह को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं। लौटते समय वो अपने साथ गंगा जल लेकर आते है, जिसका उपयोग खाना बनाने में करते हैं। अपने घर के आसपास को साफ-सुथरा रखते हैं।
व्रती इस दिन सिर्फ  एक बार ही खाना खाते हैं। खाने में व्रती कद्दू की सब्जी, मूंग-चना दाल, चावल का उपयोग करते हैं। यह खाना कांसे या मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है, तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते हैं, उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य प्रसाद खाते हैं। छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे ‘खरना’ के नाम से जाना जाता है, चैत्र या कार्तिक महीने की पंचमी के रोज यह को मनाया जाता है।

इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं, इस दिन व्रती अन्न तो दूर की बात है, सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते। शाम को चावल, गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग करके खीर बनाई जाती है। इसे बिहार की  कई जगहों पर ‘रसिया’ या ‘रसियाव’ कहा जाता है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता। इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर व्रती प्रसाद ग्रहण करते हैं। फिर सभी मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं। इस संपूर्ण प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते हैं। मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ‘ठेकुआ’ अथवा ‘खमौनी’ बनाते हैं।

छठ पर्व का तीसरा दिन, जिसे संध्या अघ्र्य के नाम से जाना जाता है, चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू इत्यादि भी बनाया जाता है। छठ पूजा के लिए बांस की बनी हुई एक टोकरी में पूजा का प्रसाद, फल डालकर रख दिया जाता है। वहां पूजा-अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल, पांच प्रकार के फल और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरु ष अपने हाथों से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो, इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते हैं।

छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्राय: महिलाएं छठ का गीत गाते हुए जाती हैं। खास बात यह है कि छठ के गीत तो हर कार्य करते हुए गाए जाते हैं। नदी या तालाब के किनारे नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है, उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढ़ाते हैं, और दीप जलाते हैं। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते हैं, और डूबते हुए सूर्य देव को अघ्र्य देकर पांच बार परिक्रमा करते हैं। सामग्रियों में व्रतियों द्वारा स्वनिर्मिंत गेहूं के आटे से निर्मिंत ‘ठेकुआ’ सम्मिलित होता है। इन पकवानों के अतिरिक्त कार्तिक मास में खेतों में उपजे सभी नये कंद-मूल, फल-सब्जी, मसाले और अन्नादि यथा गन्ना, ओल (सूरन), हल्दी, नारियल, नींबू (टाभा नींबू), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं साबूत (बिना कटे-टूटे) ही अर्पित होते हैं। उसके अगली सुबह प्रात:काल उषा अघ्र्य के साथ चार दिन तक चलने वाला व्रत संपूर्ण हो जाता है।

छठ व्रत का यह पर्व कई मायनों में अति विशिष्ट है। इस व्रत की एक खास विशेषता यह है कि इसमें किसी पंडित-पुरोहित की कोई खास जरूरत नहीं होती है। घर के लोग ही अघ्र्य दिलवा देते हैं। सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण मिलता है इस व्रत में। सामाजिक रूप से गरीब, अमीर, ब्राह्मण या दलित सभी समान रूप से पवित्र और एक समान माने जाते हैं। स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। घर से बाहर तक सभी लोग साफ-सफाई करते हैं। प्रकृति की पूजा का अनुपम उदाहरण देखा जाता है, जिसमें साक्षात देवता सूर्य की उपासना होती है लोक संस्कृति और वैदिक संस्कृति का समन्वय देखा जाता है। छठ भारतीय संस्कृति के तप, त्याग और संकल्प शक्ति का अनूठा पर्व है। जहां-जहां भी पुरबिया समाज है, यह पर्व अति उत्साह से मनाता है।

अजीत दुबे
मैथिली भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार के उपाध्यक्ष रह चुके लेखक विश्व भोजपुरी सम्मेलन संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष


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