राग-रंग : कार्तिक में काशी की अनुपम छटा
कुछ वर्षो पूर्व मेरे एक मित्र की जिद थी कि वह बनारस घूमना चाहते हैं। प्रदेश सरकार के अधिकारी थे और चाहते थे कि जब वह बनारस की यात्रा करें, मैं उनके साथ अवश्य रहूं।
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उन्हें साहित्य-संस्कृति से लगाव था और बनारस के बारे में पढ़ते-सुनते हुए इस नगर में भ्रमण को लेकर बहुत उत्सुक थे। मेरे साथ इसलिए आना चाहते थे कि मैं उन्हें बनारस के विविध पक्षों पर विस्तार से बताता चलूं। हम सड़क मार्ग से लखनऊ से बनारस आए। वे बहुत खुश थे। मैंने रास्ते में उन्हें बनारस पर आधारित कुछ कविताएं भी सुनाई। संगीतकारों और साहित्यकारों के बारे में बताया। उनकी उत्सुकता और बढ़ती गई, लेकिन जब उन्होंने इस नगर में प्रवेश कर विभिन्न इलाकों में घूमना शुरू किया, उनका उत्साह कम पड़ता गया। उनकी बड़ी कार कई जगह जाम में फंस गई, कई जगह रिक्शा, साइकिल या मोटरसाइकिल से टकराती भी रही। कबीरचौरा आकर तो उनका धैर्य ने जवाब दे दिया। जिस क्षेत्र के बारे मैंने उन्हें बताया था कि यहां की कुछ गलियों में कितने ही पद्म अलंकरण से सम्मानित कलाकार रहते हैं, वहां उनकी स्थिति किसी चक्रव्यूह में फंस जाने जैसी थी। खराब सड़कों, जगह-जगह मरम्मत कार्य के कारण रास्ता बंद होने और भारी भीड़ से वे बुरी तरह घबरा गए थे। उन्होंने कहा कि अगर यही बनारस है, जिसके बारे में मैंने इतना पढ़ा और सुना है, तो मुझे यहां नहीं घूमना है।
फिर मैं उन्हें किसी प्रकार अस्सी घाट ले गया। हमने कार वहां छोड़ दी और नाव से राजघाट की ओर निकल पड़े। नाव जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, उनके चेहरे का भाव बदलने लगा। कार्तिक का महीना था, शाम होने को थी। हम पहले दशामेध और फिर पंचगंगा की ओर बढ़ चले। जगह-जगह ऊंचे-ऊंचे बांसों पर टोकरियों में आकाशदीप लगे थे। गंगा में दीपदान हो रहा था। कई घाटों पर आरती हो रही थी। काशी की इस छटा पर वे मुग्ध हो गए। सड़कों के शोर और भीड़ से अलग यहां सुकून था। उन्होंने गंगा की ओर से जब बनारस को देखा तो सबकुछ भूल गए। उन्होंने कहा कि सचमुच यह नगर अनुपम है। इसे यहां की सड़कों पर नहीं समझा जा सकता। मैंने पाया कि वे जयशंकर प्रसाद की कविता याद कर रहे थे। मुझे भी प्रसाद याद आ रहे थे, लेकिन मुझे उनकी कहानी ‘आकाशदीप’ याद आ रही थी। प्रसाद ने इस कहानी में लिखा है-‘शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंद्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मंजुषा में दीप धर कर उसने अपनी सुकुमार ऊंगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढ़ने लगा। भोली-भोली आंखें उसे ऊपर चढ़ते हर्ष से देख रही थीं। डोरी धीरे-धीरे खींची गई। चंपा की कामना थी कि उसका आकाशदीप नक्षत्रों से हिलमिल जाए; किंतु वैसा होना असंभव था। उसने आशाभरी आंखें फिरा लीं। सामने जल-राशि का रजत श्रृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलम की क्रीड़ा शैल-मालाएं बन रही थीं-और वे मायाविनी छलनाएं अपनी हंसी का कलनाद छोड़कर छिप जाती थीं। दूर-दूर से धीवरों कावंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चंपा ने देखा कि तरल संकुल जलराशि में उसके कंदील का प्रतिबिंब अस्त-व्यस्त था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैकड़ों चक्कर काटता था। वह अनमनी होकर उठ खडी हुई।’ बनारस की संस्कृति को गहराई से अपनी रचनाओं में आत्मसात करने वाले प्रसाद इस कहानी को लिखते समय बनारस के घाटों पर जलने वाले आकाशदीपों से निश्चय ही प्रेरित रहे होंगे। कार्तिक माह में मैंने बहुत सारे लोगों को इसी प्रकार धीरे-धीरे डोरियों से दीप को बांस के शिखर पर चढ़ाते देखा है। टोकरियों में दीप जलाकर उन्हें डोरियों के सहारे ऊंचाई पर पहुंचा दिया जाता है। ये आकाशदीप देर तक चलते रहते हैं और उनका प्रतिबिंब गंगा की लहरों में अस्त-व्यस्त होता रहता है। हरिऔध की कविता ‘आकाशदीप’ अभी कुछ ही समय पहले मेरे नजरों के सामने से गुजरी थी, जिसकी आरंभ की पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं-‘अवनी-तल पर रहकर भी क्यों नभ-दीपक कहलाते हो, किन पुनीत भावों से भरकर भावुकता दिखलाते हो।’
मैंने जब उस अधिकारी मित्र को बताया कि कार्तिक पूर्णिमा पर समस्त घाटों को दीपों से सजाया जाता है तो वे दोबारा आने की जिद कर बैठे और सपरिवार बनारस आकर उन्होंने जब देव दीपावली को देखा तो अभिभूत हो गए। उन्होंने कहा कि वे इस दृश्य को कभी नहीं भूल पाएंगे। चलते-चलते मैंने उन्हें इसी नगर के शायर नजीर बनारसी की कुछ पंक्तियां भी सुना दीं, जिसे वे चकित हो सुनते रहे- ‘नहीं-नहीं, यह दिए नहीं हैं जो बहते पानी पे जल रहे हैं, गगन से तारे उतर-उतर कर लहर-लहर पर टहल रहे हैं, दिये की लौ सहमी जा रही है, हवा का झोंका लपक रहा है, हर एक दीये में है दिल किसी का, ठहर-ठहर कर धड़क रहा है।’
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