मीडिया : यह कैसी विज्ञापन कला!
दीवाली का सीजन। एक है नामी डिजाइनर। उसने बनाया डिजाइनर ‘मंगलसूत्र’ और पहना दिया कई सांवली काली युवतियों को अपना ‘मंगलसूत्र’।
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खबर चैनलों ने दिखाया : काली सांवली युवतियों के लुक्स बेहद आकामक और क्षोभ भरे। जहां मंगलसूत्र पहना उसके नीचे मॉडलों के स्तनों के उभारों को दिखाने पर जोर। एकदम सेक्सिस्ट लुक्स! जैसे ही मीडिया में यह सेक्सिस्ट मंगलसूत्र दिखा वैसे ही विरोध शुरू हो गया। एक जिज्ञासु एंकर ने दो औरतों को चर्चा में बिठाया। एक परंपरावादी, दूसरी आधुनिका। आधुनिका ने की मंगलसूत्र के इस नये विचार की तारीफ तो परंपरावादी ने कहा कि यह मंगलसूत्र की पवित्रता का हनन है। सिर्फ शादीशुदा औरतें उसे पहनती हैं। इस तरह की औरतें नहीं पहनतीं और अगर पहनती भी हों तो इस तरह से नंगी नहीं दिखतीं जैसे कि दिखाई गई हैं। एंकर बोली कि ये फैशन डिजाइनर टॉप के डिजानर हैं, बड़े लोग उनको पसंद करते हैं और इस तरह का विवाद व्यर्थ है।
अब यह तो पता नहीं कि डिजाइनर महोदय ने अपने मंगलसूत्र के विज्ञापन को वापस लिया कि नहीं लेकिन वो जो चाहते थे वो हो गया। मंगलसूत्र ने हंगामा खड़ा कर अपना मार्केट तो बना ही लिया। अब विज्ञापन वापस हो तो भी ‘मंगलसूत्र’ को बिकना ही बिकना है। ऐसे ही एक सौंदर्य बढ़ाने वाली क्रीम का विज्ञापन रहा जिसमें दो स्त्रियां आपस में ‘करवा चौथ’ मनाती नजर आई। जिस तरह से ‘करवा चौथ’ में विवाहिताएं छलनी से चंद्रमा अथवा पति के दर्शन कर अपने पति की लंबी आयु की कामना करती हैं, उसी तरह दोनों स्त्रियां छलनी के माघ्यम से एक दूसरे के दर्शन कर खुश होती दिखती हैं। ज्ञानियों ने इसे भारत का पहला ‘लेस्बियन’ (स्त्री समलैंगिक) विज्ञापन कहा तो एमपी के एक मंत्री ने इसे ‘करवा चौथ’ जैसे पवित्र त्यौहार की बेइज्जती माना। कंपनी ने इसे हटा लिया और माफी मांगी लेकिन वह ब्रांड तो हिट हो गया।
इसी तरह कुछ पहले एक सोने के ‘डिजाइनर आभूषण’ बनाने वाली कंपनी ने जब विवाह के हिंदू रीति-रिवाजों में मुस्लिम रीति-रिवाजों को मिक्स कर अपने नये डिजाइनर आभूषण की एक टीवी विज्ञापन के जरिए मारकेटिंग की तो हिंदू समूहों ने आपत्ति की और उसे भी हटा लिया गया। बहुत से ज्ञानियों ने इसे आजादी का हनन कहा। विज्ञापन का विरोध करने वालों को ‘फासिस्ट’ कहा। यह एक नये प्रकार की विज्ञापन कला है। ऐसे विज्ञापन जानबूझ के बनाए जाते हैं, उनको विवाद पैदा करने के लिए बनाया जाता है। ऐसे आइटमों को लेकर जिस तरह के विरोध और विवाद अक्सर सामने आते हैं, उनको देख साफ लगता है कि वे इसी इरादे से बनाए गए हैं। इसीलिए जब विवाद खड़ा हो जाता है, लोग विरोध करते हैं तो उसे वापस ले लिया जाता है। मगर यह कोई नहीं बताता कि प्रोडक्ट वापस लिया कि नहीं।
इसी तरह ‘आश्रम’ नामक फिल्म (ओटीटी वेब सीरीज) में जब आश्रम व बाबाओं का मजाक उड़ाया गया तो कुछ हिंदू समूहों ने यह कहकर उसका विरोध किया कि फिल्मों में हिंदू प्रतीकों को ही क्यों टारगेट किया जाता है? जरा किसी अन्य धर्म के प्रतीकों को टारगेट करके देखो ना। इस पर भी कुछ ज्ञानी बोले कि यह ‘हिंदू फासिज्म’ है। अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए आजकल बहुत से लोग इसी तरह की ‘चिढ़ाउ कला’ (टीजर आर्ट) का सहारा लेते हैं। पहले चिढ़ाते हैं, अपमान करते हैं, फिर सॉरी बोल देते हैं।
अपने कई नेताओं ने भी अपनी मार्केटिंग इसी तरह की है: पहले वे टीवी में जहर उगल देते हैं। जब जहर पर हंगामा होने लगता है तो सॉरी बोलकर छुट्टी पा लेते हैं, लेकिन इतने में उनका जहर काम कर चुका होता है : वह ‘प्रति-जहर’ बना चुका होता है। फिर भी ‘ज्ञानीजन’ कहते नहीं थकते कि यहां आजादी का हनन होता है, बोलने नहीं दिया जाता! यहां फासिज्म है। यह कैसा बढ़िया फासिज्म है, जो कुछ भी बोलने देता है। और यह कैसा पिछड़ापन है कि जिसे चिढ़ाकर और नीचा दिखाकर उस पर हंसा जाता है और अगर वह विरोध करे तो उसे ‘फासिस्ट’ कह दिया जाता है। दूसरे की कीमत पर आपका प्रोडक्ट बिके तो जनतंत्र और इस क्रम में जनता की भावनाएं आहत हों तो हों। अगर जनता कुछ बोले तो वो फासिस्ट और उसकी भावना की कीमत पर आप मलाई काटें तो जनतंत्र। जरा अफगानिस्तान में ऐसा एक विज्ञापन या फिल्म बनाकर देख लो? अफगानिस्तान क्यों, जरा इधर ही के किसी कट्टरतावादी समूह के धर्म या संस्कृति के खिलाफ कुछ कह के तो देख लीजिए आपको आजादी के सारे मानी तुरंत समझा दिए जाएंगे।
क्या किसी को अपमानित करना ही महान कला की निशानी है!
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