सामयिक : कश्मीर में कारगर रणनीति
अनुच्छेद 370 और 35ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे।
![]() सामयिक : कश्मीर में कारगर रणनीति |
विकास की तमाम योजनाएं चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मजदूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुंच गए थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएं खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ और फौज की सख्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाजी की घटनाएं और आये दिन के बंद नदारद हो गए। हुर्रियत जैसे संगठनों पर शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गई थी।
उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेजी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप हो गया था पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लाख पर्यटक आया जो एक रिकॉर्ड है। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है। अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमेरिका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं।
उधर, पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर उत्साहित है। जग-जाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारखाने चल रहे हैं, और इन्हीं के सहारे वहां की राजनीति चल रही है। ताजा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ को पाकिस्तान की फौज ने प्रधानमंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातोंरात बदल दिया। आईएसआई के नये चीफ ने अपनी कश्मीर नीति में फौरन बदलाव किया क्योंकि पुरानी नीति अब कामयाब नहीं हो रही थी।
पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में पहुंचा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने रणनीति बदल दी। नई रणनीति में खर्च भी कम है, और जान गंवाने का खतरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है, जो फौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ्ट टाग्रेटस’ जैसे मजदूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं पर इनका असर गहरा पड़ा है। एक बार फिर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गई है।
इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कमीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मजदूर मंगाते रहे हैं। विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोजगार का सृजन करती जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोजगार की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होंगी क्योंकि बेरोजगार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। जगजाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साजिश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया जिसके कारण आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सका है।
सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिंकजा कसने की जरूरत है। इन्हें कहां से और कैसा पैसा आता है, इस पर कड़ी नजर जरूरी है। इन मदरसों में क्याािक्षा के नाम पर आतंकवाद का जहर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब हों जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फंसे से बचाना। जहां एक तरफ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस पर नजर नहीं रखी गई कि घाटी के बेरोजगार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं।
इसको बहुत सख्ती से रोकने की जरूरत है जिससे नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गंवाएं। तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेलिजेंस को करना चाहिए था, वो यह कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के बिना ही सीधी भर्ती करके अफसर बना दिया गया था।
कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताकतों को पालते-पोसते हैं। इनकी छंटनी किए बिना आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधानमंत्री को फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरुद्ध कुछ कड़ी नीतियां अपनानी होंगी।
यह दावा तो कोई नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह काबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियां थोप रही है, उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज्यादा बढ़ गया है। यहां यह कहना भी जरूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्माधता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं।
| Tweet![]() |