मीडिया : बॉलीवुड और नशा
कोरोना काल में सिनेमाहॉल बंद रहे। कोई भी फिल्म हिट नहीं हुई जो रिलीज हुई वो ‘ओटीटी वेब सीरीज’ वाली फिल्में थीं। सिनेमाहॉल की कमी को टीवी और स्मार्टफोन ने पूरा किया।
![]() मीडिया : बॉलीवुड और नशा |
‘ओटीटी’ का गणित सिनेमाहॉल के बॉक्स ऑफिस के गणित से कुछ अलग चलता है। बॉक्स ऑफिस का मतलब होता था सिनेमाहॉल में भीड़ों का आना और हाउसफुल का बोर्ड लगना और टिकटों का ब्लैक होना। वही फिल्म हिट मानी जाती जो भीड़ जुटाती।
कोरोना काल से पहले बॉलीवुड में ‘सौ करोड़ क्लब’ बन चुका था। कुछ फिल्मों ने दो सौ से तीन सौ करोड़ तक कमाए। वही सुपरहिट कहलाई। ऐसी आखिरी फिल्म आमिर की ‘दंगल’ थी और सलमान की ‘सुल्तान’। सौ दो सौ करोड़ कमाने वाली फिल्मों ने फिल्मों के मानक बदल दिए। फिल्म की गुणवत्ता की जगह उसकी कमाई ही एकमात्र मानक बन गई। कुछ फिल्म निर्माताओं को ‘सौ करोड़ क्लब’ का लीडर माना जाने लगा था क्योंकि उनकी हर फिल्म दो तीन सौ करोड़ रुपये से अधिक कमाती थी। लेकिन ऐसा भी नहीं कि जो सौ करोड़ वाले क्लब में नहीं आते थे उनकी कमाई नहीं होती थी। पिछले दिनों में तो कुछ ऐसी कहानियां भी आई हैं, जिनके हीरोज ने सौ करोड़ के क्लब को ज्वाइन किए बिना भी जम के कमाई की। यह सब उनकी जीवनशैली को देखकर समझ में आता है कि बहुत कुछ किए बिना वे भी सौ-पचास करोड़ में खेलते हैं।
सवाल उठता है कि ये सौ दौ सौ करोड़ आते कहां से हैं, और फिर जाते कहां हैं? ये सैकड़ों करोड़ पब्लिक की जेब से आते हैं, और हीरो-हीरोइनों की विदेश यात्राओं में, विलास की वस्तुओं और महंगी गाड़ियों और महंगे मकानों को खरीदने में जाते हैं, और आजकल एक बड़ा हिस्सा गांजा, चरस, अफीम जैसे वर्जित नशों में जाता है।
आर्यन खान अपराधी साबित हो या न हो, लेकिन नशे की इस कहानी ने बॉलीवुड के नशा-कल्चर को सबके सामने उजागर कर दिया है, जो बताती है कि बॉलीवुड में आजकल नशा और नशा पार्टी एक आम चलन है, और जिसका ताजा प्रमाण बड़े नामी हीरोज के नौनिहालों की ‘क्रूज नशा पार्टी’ है। अगर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की कहानी को याद करें तो उस कहानी में भी नशेबाजी का बड़ा रोल था और इन दिनों प्रसारित हो रही आर्यन-अनन्या की कहानी में भी वर्जित नशे की लत सिर चढ़ के बोल रही है। ऐसा होना ही था और होते रहना है क्योंकि जब किसी के पास बिना किसी बड़ी मेहनत के बहुत पैसा आ जाता है, तो जीवन भोग-विलास की एक ‘अहर्निश पार्टी’ बन जाता है, और जिसका क्लाईमेक्स वर्जित नशों की महंगी पाटियों में ही होता है।
नशा करना और वर्जित नशा करना बॉलीवुड की अपनी खास कल्चर है। बिना किसी बड़ी मेहनत के कमाए बड़े पैसे की कल्चर एक लफंगी कल्चर होती है। पैसे वाले मां-बाप के बिगड़े बच्चे जानते होते हैं कि वे कुछ भी करें उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसीलिए आर्यन खान या अनन्या के चेहरों पर शिकन तक नहीं दिखती क्योंकि वे जानते हैं कि अंतत: बच जाएंगे जब उनके वकील उनके लिए मरे जा रहे हैं। और कैसी विडंबना है कि हम फिर-फिर इन्हीं जैसों की फिल्में देखते हैं। उनको सौ दो करोड़ तक कमाने देते हैं, और वे उसी पैसे को नशे में उड़ाते हैं, और हमारे हीरो-हीरोइन बन जाते हैं।
अपने यहां अमीरी और गरीबी के बीच का रिश्ता ऐसा ही विडंबनापूर्ण है: फिल्में सपने बेचती हैं। पब्लिक उन सपनों को खरीद कर दो तीन घटे आनंद लेती है। पब्लिक का पैसा फिल्मवाले की जेब में जाता है और जब पैसा अझेल हो जाता है, तो वह नशे की ओर ले जाता है। जब बिना बड़ी मेहनत के बहुत सा पैसा आ जाता है तो ऐसा अमीर अपनी विलासिता को आदर्श की तरह पेश करता है। बहुत बहुत पैसे वाले का जीवन ‘अहर्निश पार्टी’ बन जाता है, जिसका क्लाइमेक्स महंगे और वर्जित नशे के सेवन की पार्टी में होता है।
शराब तो आजकल आम चलन है, उसे तो कोई भी ले सकता है। असली बात है नशा लेना और वर्जित नशा लेना। पैसे वाला कानून तोड़कर ही अपने को औरों से कुछ अलग दिखाता है। हमारा बॉलीवुड हॉलीवुड की नकल करता है। वह हॉलीवुड की कहानी या संगीत की नकल नहीं करता, बल्कि वहां की जीवन शैली की भी नकल करता है। वहां नशा है तो यहां भी नशा ही नशा है। वहां नशे को लीगल करने की मांग उठ रही है, तो यहां भी उठेगी।
| Tweet![]() |