वैश्विकी : ‘मास्को वार्ता’ का संदेश
अफगानिस्तान में तालिबान हुकूमत कायम होने के दो महीने बाद भी देश किस दिशा में जा रहा है, इसका अनुमान लगाना कठिन है। घरेलू मोर्चे पर तालिबान ने अपनी कट्टरपंथी सोच में बदलाव के कुछ संकेत दिए हैं।
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अंतररराष्ट्रीय समुदाय के चौतरफा दबाव के कारण तालिबान की क्रूरता में कुछ कमी आई है। यही कारण है कि काबुल सहित देश के कई नगरों में महिलाएं कम संख्या में ही सही लेकिन अपनी मांगों के समर्थन में सार्वजनिक रूप से विरोध व्यक्त कर रही हैं। तालिबान शासकों के लिए भी देश का संचालन करना बड़ी चुनौती है। पिछली बार जब तालिबान हुकूमत में आए थे तब पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने उन्हें राजनयिक मान्यता दी थी। इस बार अभी तक किसी देश ने ऐसा नहीं किया। तालिबान का सरपरस्त पाकिस्तान भी खुले रूप से हुकूमत की पैरवी करने में सावधानी बरत रहा है।
इस सप्ताह अफगानिस्तान के बारे में सबसे बड़ा घटनाक्रम रूस की ओर से आयोजित मास्को वार्ता था, जिसमें भारत, पाकिस्तान और चीन सहित पड़ोस के दस देशों ने शिरकत की। समझा जाता है कि बैठक से अलग हटकर भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने तालिबान के नेताओं से बातचीत की। तालिबान ने भारत को यह आश्वस्त करने की कोशिश की कि वह अपनी भूमि का उपयोग भारत के विरुद्ध आतंकवादी कार्रवाइयों के लिए नहीं होने देगा। साथ ही, उसने अफगानिस्तान में भारत की मानवीय सहायता और विकास कार्यों के बारे में अनुकूल रवैया अपनाया। भारत के लिए अफगानिस्तान में सक्रियता की गुंजाइश बहुत सीमित है। दुनिया के देश आगामी दिनों में यदि तालिबान को मानयता देते हैं, तो भी भारत के लिए ऐसा फैसला करना आसान नहीं होगा। काबुल में यदि भारतीय दूतावास खुल भी जाता है, तो इस बात की संभावना नहीं है कि मजार-ए-शरीफ, कंधार और जलालाबाद में भारतीय वाणिज्य दूतावास फिर काम कर सकेंगे। पाकिस्तान की पूरी कोशिश होगी कि वह तालिबान शासकों को भारत को कोई अनुमति देने से रोके।
मास्को वार्ता तालिबान के लिए खुशखबरी सिद्ध हो सकती है। पूरे घटनाक्रम का सूत्रधार रूस है तथा वह तालिबान के अभिभावक के रूप में उभर रहा है। इस संबंध में ध्यान देने वाली बात यह है कि कानूनी रूप से तालिबान रूस में गैरकानूनी संगठन है। रूस की ओर से राजनयिक मान्यता देने से पहले उसे गैरकानूनी तमगे से मुक्त होना होगा। रूस ने राजनयिक मान्यता के लिए तालिबान के सामने जो शर्त रखी हैं, वे वही हैं जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2593 में उल्लिखित हैं। भारत भी अफगानिस्तान में समावेशी सरकार बनाने, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा तथा लोगों के बाधा मुक्त आवागमन पर जोर देता रहा है। यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा कि तालिबान इन शतरे को पूरा करने में कितनी तत्परता दिखाता है।
भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जिन्होंने तालिबान को वैधानिकता प्रदान करने से स्वयं को दूर रखा है, लेकिन भारत सरकार भी इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण है। तालिबान के विरुद्ध पंजशीर प्रतिरोध भी बड़ी चुनौती पेश नहीं कर सका। तालिबान धीरे-धीरे शासन-प्रशासन पर अपनी पकड़ और मजबूत बनाएंगे। इससे देश में कम-से-कम स्थिरता कायम होगी। तालिबान यदि पुरानी गलतियों को नहीं दोहराते हैं, तो पड़ोसी देश भी शरणार्थियों के आने की समस्या से राहत महसूस करेंगे। पिछले दो महीने के दौरान भारत ने कई बार स्पष्ट किया है कि वह अफगान आवाम के साथ है। अफगानिस्तान की जनता को राहत पहुंचाने के लिए उसने मानवीय सहायता देने की सच्छा भी जताई है, लेकिन उसका जोर इस बात पर है कि यह संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में अंतरराष्ट्रीय राहत संस्थाओं की ओर से संचालित की जाए।
अफगानिस्तान के घटनाक्रम के संबंध में भारत को अपनी भूमिका को फिर से प्रभावी बनाने का एक अवसर नवम्बर महीने में आएगा, जब उसकी ओर से क्षेत्रीय देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक का आयोजन किया जाएगा। इस बैठक में चीन और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के भाग लेने की संभावना है। अजित डोभाल इस बैठक के जरिए आतंकवाद से भारत को सुरक्षित बनाने की कार्ययोजना पेश कर सकते हैं।
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