जलवायु परिवर्तन : कुदरत के क्रूर संकेत समझें

Last Updated 20 Oct 2021 02:21:06 AM IST

हिमालयी राज्य उत्तराखंड में इस साल का मानसून 8 अक्टूबर को विदा हो चुका है और उसके बाद भी राज्य में आसमान कहर बरपा रहा है।


जलवायु परिवर्तन : कुदरत के क्रूर संकेत समझें

राज्य के कुछ स्थानों पर वर्षा ने अक्टूबर में 124 सालों का भी रिकार्ड तोड़ दिया। उत्तराखंड की ही तरह केरल में भी दम तोड़ता मानसून अचानक कहर बरपाने लगा। यही नहीं जिस शीतकाल में हिमालय पर नदियां तक जम जाती हैं और उनमें बहने वाला पानी बहुत कम हो जाता है उसी हिमालय पर 7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा और धौलीगंगा में अचानक बाढ़ आ जाती है और सैकड़ों लोग हताहत हो जाते हैं।

इसी तरह 2013 में अचानक समय से काफी पहले हिमालय पर मानसून की चढ़ाई का परिणाम केदारनाथ की आपदा के रूप में सामने आता है, जिसमें हजारों लोग मारे जाते हैं। प्रकृति के इस विचित्र मिजाज को अगर हम अब भी नहीं समझ पाए तो यह हमारी बेहद खतरनाक भूल होगी।

साल का मानसून जब वापस लौटने लगता है तो अपने पीछे शीत ऋतु के लिए रास्ता बनाता जाता है। शीत ऋतु में वष्रा अवश्य होती है, मगर उसमें मानसून की जैसी बौछारें नहीं पड़तीं। हमने इसी साल पहली बार फरवरी महीने की कड़कड़ाती सर्दी में उत्तराखंड के हिम प्रदेश में ऋषि और धौली गंगा में विनासकारी बाढ़ देखी।

अब मानसून लौटने पर नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में बादल फटने की घटना भी सुन ली। मौसम विभाग कहता है कि अक्टूबर की 19 तारीख को नैनीताल जिले के मुक्तेर में 340.8 मिमी वर्षा दर्ज हुई, जो कि अब तक का रिकार्ड है। ठीक 124 साल पहले 10 जुलाई 1914 को वहां 254.5 मिलीमीटर वष्रा दर्ज की गई थी।

जाहिर है कि मुक्तेर में इतनी वर्षा बरसात में भी कभी नहीं हुई थी। इसी प्रकार 19 अक्टूबर को ही पंतनगर में 403.2 मिमी वर्षा दर्ज की गई, जबकि इससे पहले वहां 1990 में  सबसे अधिक 222.8 मिमी वर्षा का रिकार्ड था। प्रकृति की इन विचित्र हरकतों को समझने और प्रकृति के कोप से बचने के उपाय करने के बजाय हम इसे स्वाभाविक मान कर आपदाओं का इंतजार कर रहे हैं।

इस साल मानसून की गति असामान्य रहने से जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उत्तराखंड ही क्यों? केरल में भी बारिश कहर बरपा रही है। हिमाचल प्रदेश में भी बारिश लगातार कहर बरपा रही है और अक्टूबर में एक बार फिर यहां अलर्ट जारी हुआ है। उत्तरी केरल और कर्नाटक के तटों से लगे दक्षिण-पूर्व अरब सागर में कम दबाव वाला क्षेत्र बनने की वजह से भी मॉनसून के लौटने में देरी हो रही है।

कम दबाव वाले क्षेत्र अरब सागर से हवाएं केरल की तरफ चल रही हैं और इसके चलते मानसून अब समुद्री क्षेत्र तक लौट पाने की बजाय केरल के ऊपर ठहर चुका है और यहां जबरदस्त बारिश हो रही है। अगर अरब सागर में यही कम दबाव वाला क्षेत्र मानसून सीजन की शुरुआत (मई-जून) में बनता है, तो इसके आगे बढ़ने की गति तेज हो जाती है। प्रकृति के इस बदले हुए मिजाज का कारण जलवायु परिवर्तन ही माना जा सकता है। भारत में मानसून का देर से लौटना एक बड़ी चिंता की बात है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन की वजह से पृथ्वी पर ग्लोबल वर्मिग का असर बढ़ता जा रहा है। इसका असर आर्कटिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा पड़ रहा है, क्योंकि यहां बर्फ काफी तेजी से पिघल रही है।

इससे पश्चिमी यूरोप और पूर्वोत्तर चीन में समुद्र में उच्च दबाव का क्षेत्र बन जाता है और भ्रमणकारी लहरें अपनी पूर्व की दिशा बदलकर दक्षिण-पूर्व की तरफ चलने लगती हैं। ये लहरें मानसून सीजन के खत्म होने के दौरान भारत में एंट्री लेती हैं और समुद्र के ऊपरी वायुमंडल में गड़बड़ियां पैदा करती हैं। अगर हमारे कार्य प्रकृति के अनुकूल हैं तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जबकि प्रतिकूल कार्यों के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है।

उदाहरणार्थ मानव के लालच के कारण आवयकता से अधिक लकड़ी का प्रयोग, औद्योगीकरण व प्रदूषण के कारण पृथ्वी के औसतन ताप में बढ़ोतरी हुई है। यह एक ऋणात्मक पर्यावरण का उपयुक्त उदाहरण है। पृथ्वी आज पहले की तुलना में गर्म हुई है, जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। उदाहरणस्वरूप जैसे-जैसे पृथ्वी अधिक गर्म होगी वैसे-वैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में बढ़ोतरी/वैीकरण असंतुलन के कारण अमेरिका व अफ्रीका में अधिक सूखा पड़ेगा, जिससे भुखमरी की स्थिति पैदा होगी।

वैश्विक तापमान वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत में छिद्र, तेजाब वष्रा से पारिस्थितिकी तंत्र पर कुप्रभाव पड़ रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के कारण सम्पूर्ण विश्व के समक्ष कई खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में पश्चिमी देशों में जो औद्योगिक विकास हुआ, उसके दुष्परिणाम अब हमारे सामने दिख रहे हैं क्योंकि असंख्य औद्योगिक कारखानों से जो ग्रीनहाउस गैसें निकलीं। वे वातावरण में संचित हो गई। कार्बन डाइऑक्साइड इन बढ़ी ग्रीन हाउस गैसों के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।

कृषि कार्य, लकड़ी, पेट्रोल, डीजल, कोयला, गैस, किरासन आदि के उपयोग से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा ज्यादा निकलती है। तीन चीजें जो घातक मानी जाती उनमें ज्यादा कार्बन वातावरण में संचित होने के कारण जलवायु परिवर्तन पहले ही हो चुका है अर्थात वष्रा की कमी से सूखा ज्यादा पड़ रहा है और तापमान में वृद्धि हो गई है। इसके अलावा, तूफान, चक्रवात, सुनामी, वन में आग लगने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है। वर्तमान में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उस स्थिति को बदतर बनाएगा।

भविष्य में यदि यही गति, दशा और दिशा रही तो वातावरण बहुत ज्यादा प्रभावित होगा। अभी तक जितना जलवायु परिवर्तन हो चुका है उसके अनुकूलन के लिए भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.6 प्रतिशत ही खर्च कर रहा है, जिसे भविष्य में बढ़ती समस्या के आलोक में कई गुना बढ़ाने की आवश्यकता है। दरअसल, प्रकृति ने हमें पृथ्वी में सभी जीवनोपयोगी साधन उपलब्ध कराए हैं।

मनुष्य इनका अगर अपनी जरूरत के अनुरूप ही प्रयोग करता है तो इसका संतुलन नहीं बिगड़ेगा, लेकिन अगर लोभवश इनको अपनी आवश्यकता से अधिक ग्रहण करने का प्रयास करता है तो इसके पर्यावरण में असंतुलन से भयावह परिणाम होंगे, जिसका वह स्वयं भुक्तभोगी और उत्तरदायी होगा। आज महती आवश्यकता है कि जंगलों का अंधाधुंध कटान बंद हो तथा पृथ्वी में अब तक इसके हो चुके नुकसान की भरपाई के लिए अधिक-से-अधिक पेड़-पौधे लगाकर हरित क्षेत्र को बढ़ाया जाए। अगर मानव अब भी न चेता तथा उसने प्रकृति से खिलवाड़ जारी रखा तो वह स्वयं अपना विनाश को आमंत्रित करेगा।

जय सिंह रावत


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