वीर सावरकर : मत भूलिए योगदान

Last Updated 19 Oct 2021 02:36:57 AM IST

इस समय अपने महापुरुषों को लेकर वैचारिक विभाजन की जो हृदयविदारक तस्वीर हमारे सामने है, उसकी कल्पना आजादी के पहले शायद ही किसी ने की हो।


वीर सावरकर : मत भूलिए योगदान

मतभेद तब भी थे, लेकिन सम्मान सबका था। वीर सावरकर जैसे अद्वितीय  बहुआयामी व्यक्तित्व की छीछालेदर करने वाले उन महापुरुषों का भी अपमान कर रहे हैं, जिनका नाम लेकर वे सावरकर को अपमानित करते हैं।
बाबा साहब अंबेडकर रचनाओं में सावरकर के लिए महाशय शब्द का प्रयोग करते हैं। गांधी जी ने उनके बारे में जो लिखा उसमें सम्मान और प्रेम का भाव था। वे स्वतंत्रता संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी, महान क्रांतिकारी, समाज सुधारक, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, इतिहासकार, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता थे। भारत के लिए उनका योगदान अद्वितीय था, लेकिन इसे तभी समझ पाएंगे जब उनके लक्ष्य को समझेंगे। उनका लक्ष्य भारतीयों के अंदर अपनी सभ्यता, संस्कृति, प्राचीन विरासत और राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान का भाव जागृत कर अंदर वैज्ञानिक सोच व तर्कशीलता पैदा करना, उसके आधार पर अंग्रेजों के शासन को धवस्त करना तथा भारत के पुनर्निर्माण के लिए न केवल सामाजिक एकता कायम करना बल्कि भविष्य के लिए आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि आधार भूमि देना। उन्होंने हिंदुत्व को समग्र दर्शन और विचार के रूप में लिखकर प्रस्तुत किया।

वे एक ऐसे इतिहासकार हैं, जिन्होंने भारत राष्ट्र की विजय के इतिहास को तब प्रमाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया। भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ उस समय अद्भुत पुस्तक के रूप में सामने आई जिसने अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा भारत की पतनशीलता के बारे में फैलाए झूठ को ध्वस्त कर दिया। इससे भारतीयों के अंदर स्वाभिमान की चेतना जागृत हुई। सावरकर जी के साथ त्रासदी यह है कि कुछ लोग उन कार्यों को भी उनको खलनायक बनाने के रूप में लेते हैं, जो भारत के लिए उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। उदाहरण के लिए अंग्रेजों के समय सेना में हिंदुओं के शामिल होने का अभियान। अभियान उन्होंने चलाया और अपने लोगों को पूरे देश में कहा कि हिंदुओं को सेना में भर्ती होने के लिए अभियान चलाओ। तब हिंदू सेना में जाने से बचते थे। मुसलमान ज्यादा थे। जैसी स्थिति मुस्लिम लीग के आंदोलन से पैदा हो गई थी उसमें आवश्यक था कि संतुलन के लिए हिंदू सेना में शामिल हों, हथियारों का प्रशिक्षण लें। इससे उनके अंदर न केवल वीरता का भाव पैदा होगा बल्कि भविष्य के लिए भी उपयोगी होंगे। भारत को स्वतंत्रता देने पर ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में जो बहस हुई; उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा था कि सेना में जिस तरह का असंतोष और विद्रोह है उसे संभालना मुश्किल है।
स्वतंत्रता में भारतीय नौसेना के विद्रोह की चर्चा सभी करते हैं पर यह भूल जाते हैं इसके पीछे सावरकर का योगदान कितना बड़ा है। जब भारत का विभाजन हुआ तो सेना में भी मुसलमानों का बहुमत पाकिस्तानी सेना का भाग बन गया। हिंदुओं को सेना में शामिल नहीं कराया गया होता तो क्या स्थिति होती इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। वीर सावरकर के जीवन के अनेक आयामों में सामाजिक सुधार यानी जाति भेद और छुआछूत को खत्म करने के लिए उनके प्रयास विरोधी चर्चा में नहीं लाना चाहते। उन्होंने अपने बड़े भाई नारायण राव को 6 जुलाई, 1920 को अंडमान जेल से लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि मुझे जातिगत भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ बगावत की उतनी ही जरूरत महसूस होती है, जितनी कि भारत पर विदेशी कब्जे के खिलाफ लड़ने की। सावरकर ने सप्तनिरोधों यानी प्रतिबंधों की चर्चा करते हुए इसे छोड़ने का अभियान चलाया। इनमें वेद पढ़ने पर प्रतिबंध, जातियों के लिए विशेष जीवन वृत्ति अपनाने पर प्रतिबंध, अस्पृश्यता, कर्मकांड प्रतिबंध, भोजन संबंधी प्रतिबंध, जाति से बाहर विवाह पर प्रतिबंध आदि शामिल थे। अस्पृश्यता को मानवता पर कलंक कहते हुए इसके विरुद्ध अभियान चलाया। हिंदू धर्म त्याग चुके लोग वापस आएं इसके लिए शुद्धि अनुष्ठानों का आयोजन किया। मंदिरों में अस्पृश्य जातियों के प्रवेश के लिए व्यापक अभियान  चलाया।
उन्होंने कई उच्च जाति के लोगों को यह समझाने में सफलता पाई कि वे अपने मंदिरों में निम्न जातियों को प्रार्थना करने दें। 1927 में रत्नागिरी में उन्होंने विभिन्न जातियों का एक महासभा आयोजन किया और 19 नवम्बर 1929 में विट्ठल मंदिर के गर्भ गृह में अछूतों को प्रवेश दिलाने में सफलता पाई। 1931 में प्राण प्रतिष्ठा के साथ उद्घाटित पतित पावन मंदिर उनकी ऐसी देन थी, जिसकी कल्पना उसके पहले कोई नहीं कर सकता था।  शंकराचार्य उसमें आए और एक अछूत ने उनका पैर धोया। इस मंदिर को एक ऐसे केंद्र में विकसित किया जाना था, जिसमें सामूहिक प्रार्थनाएं शुरू होने पर अनेक मंदिरों की समस्याओं का समाधान हो जाए। इसमें छोटी जाति के बच्चों को संस्कृत ऋचाओं का अभ्यास कराया जाता था और विष्णु की मूर्ति का अभिषेक इन्हीं बच्चों द्वारा मंत्रोच्चार के बीच किया जाता था। उन्होंने महिलाओं के लिए पतित पावन मंदिर में ही सामुदायिक भोज शुरू कराया। उस समय महिलाओं के लिए सामुदायिक भोज आयोजित करना बड़ी सामाजिक क्रांति थी। उन्होंने वहीं एक रेस्तरां खोला, जिसमें अस्पृश्य जातियों के लोग परोसने का काम करते थे।
सामाजिक सुधार के उनके सारे कार्यों का यहां विस्तार से उल्लेख संभव नहीं है। इतने से आप कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने हिंदू समाज के बीच अस्पृश्यता व जाति भेद खत्म करने के साथ अंधविश्वास-पाखंड को दूर करने तथा कर्मकांड पर एक जाति के वर्चस्व को तोड़ने की दिशा में कितना अद्भुत काम किया था। सावरकर ने सामाजिक सुधारों के लिए नाटक, कविताएं, गीत तथा पुस्तकें लिखी। उन्होंने ऊंची जाति के लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्वयं एक अछूत समुदाय की लड़की को गोद ले लिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के साथ राष्ट्र निर्माण, भारत के सुरक्षा सिद्धांत व सैन्य बल बढ़ाने से लेकर जीवन का कोई क्षेत्र नहीं था, जिसमें सावरकर ने योगदान नहीं दिया। उनके योगदान पर काफी कुछ लिखा जा सकता है। इंदिरा गांधी ने उन पर न केवल डाक टिकट जारी किया, बल्कि उनके कार्यकाल में फिल्म डिवीजन ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई। क्यों? उनके योगदान के कारण ही तो।

अवधेश कुमार


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