कला जगत : कोलते और उनकी कला की दुनिया

Last Updated 17 Oct 2021 01:07:47 AM IST

बच्चन की पंक्तियां हैं-‘मैं और, और जग और, कहां का नाता, मैं बना-बना, कितने जग रोज मिटाता’।




चित्रकार प्रभाकर कोलते

चित्रकार प्रभाकर कोलते जब कहते हैं कि हम उस प्रकृति को क्यों बनाएं जो हमारे आसपास है और जिसे बहुत सारे लोग बनाते आए हैं, हमें तो अपनी नई प्रकृति सृजित करनी है, अपने भीतर की अनुभूतियों को कैनवास पर लाना है, तो मुझे बच्चन की ये पंक्तियां याद आती हैं।

वे मानते हैं कि चित्रों को अपने आसपास का प्रतिबिंब नहीं होना चाहिए। पेंटिग तो वह है जो आपके भीतर है। कोलते अमूर्त कला के बड़े कलाकार हैं। उनसे इधर कई बार मिलना हुआ, फोन पर भी बातें होती रहीं। वे अलग ढंग से सोचते हैं और उनके विचार उनके लंबे आत्म संघर्ष से निकल कर आए हैं। उनके चित्र, उसकी बुनावट, रंगों का उनका बर्ताव अलग है। उनसे बात करना भी महत्त्वपूर्ण होता है। वे साहित्य, संगीत के भी अध्येता हैं। कविताएं लिखते हैं, मित्रों की मंडली में गाने भी सुनाते हैं। अपने आवास पर संगीत की बैठकें भी आयोजित करते हैं। यह सब कुछ मिलकर उनके व्यक्तित्व को रचता है। कोलते हमेशा से यह बताते हैं कि मेरे लिए चित्रों की निर्माण प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण रही है, उसका परिणाम नहीं। वह कहते हैं कि इसी प्रकार शिल्प और तकनीक भी मेरे लिए प्रथम स्थान पर नहीं हैं।

कोलते कुछ माह पूर्व लखनऊ के कला एवं शिल्प महाविद्यालय में आए थे। उन्होंने दो दशक से भी अधिक समय तक मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में अध्यापन किया है, लेकिन उनके संबोधन और बातचीत में बार-बार लगा कि वे कला की शिक्षण पद्धति से खुश नहीं हैं। वे कहते हैं कि लड़के भ्रमित हैं, उन्हें नहीं पता कि क्या करना है। कोलते कहते हैं कि विद्यार्थी कला की पढ़ाई करते हैं, वस्तुएं देखते हैं, उन्हें बनाते हैं, परीक्षक को दिखाते हैं, परीक्षक कहते हैं कि फलां चित्रकार ने भी इसे बनाया है। तो उन्हें क्या बनाना है? कोलते का जीवन कठिन संघर्ष के साथ उनके आत्मविश्वास की मिसाल है। बचपन से ही ऐसा आत्मविश्वास कि इसे जिद भी कहा जा सकता है। वह कहते थे कि मैंने किशोरावस्था से ही निर्णय किया था कि चित्रकार बनना है। मुझे नहीं पता था कि ये रास्ता सही है या गलत, लेकिन मुझे ये पता था कि मुझे यही करना है। उसी दौरान बीच में कुछ समय ऐसा आया जब वे रंगमंच से जुड़े, लेकिन उनके शिक्षक प्रोफेसर पलसीकर ने निर्णय लेने में उनकी मदद की। उन्होंने कोलते से कहा कि अगर तुम्हें अभिनय करना है, तो कला छोड़ दो और वही करो, लेकिन अगर कला कर रहे हो तो कला करो। कोलते कहते हैं कि युवावस्था में कला में अपनी पहचान को लेकर मेरा आत्म संघर्ष शुरू हो गया था।

मैंने देखा था कि कई दिग्गज कलाकार एक ही दौर में काम करते हैं, वे कई बार मित्र भी होते हैं, एक दूसरे के काम का आनंद भी लेते हैं, लेकिन फिर भी उनकी अपनी पहचान होती है, उनका काम अलग-अलग होता है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कला में मैं अपनी पहचान कैसे विकसित करूं। कोलते कहते हैं कि छात्र जीवन में मैंने पाया कि कलाकार देखते हैं, उन्हें चित्रित करते हैं और उसकी व्याख्या होती है। इसी दौरान एक घटना कोलते के लिए निर्णायक सिद्ध हुई। कलाकारों का एक दल, जिसमें कोलते भी थे, किसी प्राकृतिक स्थल पर भ्रमण को गया। सभी को उन दृश्यों को देखकर चित्र बनाने थे। वह बहुत ही खूबसूरत जगह थी, झरना था। कलाकारों ने तरह-तरह से उस दृश्य को अपने चित्रों में उतारने की कोशिश की।

कोलते ने ऐसा नहीं किया। वे बस उन दृश्यों का आनंद लेते रहे। साथी कलाकारों ने कहा कि आप आखिर कैसे चित्र बनाकर दे पाएंगे, कोलते ने कहा कि देखा जाएगा। कोलते जब वापस आए तो बाद में उन्होंने चित्र बनाए और उसे दिया तो उन्हें देखने वालों ने चित्र की बहुत प्रशंसा की। कोलते इससे प्रभावित हुए और उन्होंने एक वाक्य को अपने चित्रकार का आदर्श वाक्य बना लिया। यह वाक्य था कि मैं देखता और उन्हें चित्रित नहीं करता हूं बल्कि इसके विपरीत मैं चित्रित करता हूं और देखता हूं। वह यह भी कहते हैं कि हम जो भी काम कर रहे हैं, चित्र बना रहे हैं, मूर्तिशिल्प बना रहे हैं, महत्त्वपूर्ण वह माध्यम नहीं है, महत्त्वपूर्ण है व्यक्त होना। माध्यम कोई भी हो, आप व्यक्त कैसे हो रहे हैं, ये असली बात है और आप व्यक्त होने के लिए क्या कर रहे हैं? कोलते कहते हैं कि एक ऊर्जा होती है जिसे कलाकार अपने चित्रों में डालता है।

यह सृजन की ऊर्जा जब आप में आती है तो आप उसे व्यक्त करने के लिए बेचैन हो जाते हैं। कोलते के चित्रों की प्रदर्शनी इन दिनों दिल्ली के ट्रैजर आर्ट गैलरी में चल रही है। उनके अमूर्त चित्रों को लेकर अक्सर पूछा जाता है कि आपने क्या बनाया है? कोलते कहते हैं कि ये मैंने बनाया नहीं है, ये हो रहा है। वह कहते हैं कि मेरे चित्र जब आप देखते हैं, तो उसमें एक गहराई होती है और ये गहराई आपको कहां पहुंचाएगी, मैं नहीं कह सकता हूं। कोलते अपने चित्रों में दुनिया की पुनर्सरचना करते हैं, अपनी प्रकृति खुद बनाते हैं। बच्चन की पंक्ति को फिर उद्धृत करें तो- ‘मैं बना-बना, कितने जग रोज मिटाता’। लेकिन उनका बनाया जग मिटता नहीं है, वह कैनवास पर दर्ज हो जाता है।

आलोक पराड़कर


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