दशहरा : विजय पताका फहराने का पर्व
वर्तमान समय में भारत के संदर्भ में देश-विदेश में जो हालात बन गए हैं, उससे लगता है कि इस साल की विजयादशमी वैश्विक राजनय में भारत की विजय पताका फहराने का पर्व है।
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विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है। श्रीरामचंद्र ने वस्तुवादी सोने की लंका, उसके मालिक, उसके अनाचार और अत्याचारी नीतियों को परास्त कर जब वहां आत्मवादी अयोध्या की विजय पताका लहराई और फिर उनका अयोध्या आगमन हुआ तब से यह पर्व प्रारंभ हुआ था। आज भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश-विदेश में भारत की एकता, आत्मनिर्भरता, अस्मिता व सम्मान की पताका फहरा दी और मोदी के सौजन्य से हमें यह उपलब्धि भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सवी वर्ष में हासिल हुई है, तो हम इसे भारत की वैश्विक विजयादशमी के रूप में निरूपित करेंगे।
इन दिनों देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। भारत के 75 वर्ष के वैश्विक राजनीतिक इतिहास को देखिए तो 75 वर्षो से जो वैश्विक राजनीति के अलंबरदार थे, जो पावरफुल पांच देश हैं, जिनके पास वीटो पावर है, वे देश अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और चीन हैं। इनमें से चार देश सामान्यत: पाकिस्तान के पक्ष में और एक अकेला सोवियत संघ भारत के पक्ष में खड़ा होता था, लेकिन 1962 के युद्ध के समय सोवियत संघ ने भारत का पक्ष लेने से इनकार कर दिया था। उस समय जवाहरलाल नेहरू को अपनी सोवियत समर्थक नीतियों को त्याग कर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति को रोते हुए पत्र लिखना पड़ा था।
भारत के वैश्विक राजनय के गर्त में जाने का वह समय था। लेकिन दुर्भाग्य तो देखिए; जिस पर शर्मिंदा होना चाहिए, उस पर आज तक कांग्रेसी गर्व महसूस करते हैं, और उसे पंचशील के नाम से प्रचारित करते हैं, लेकिन हमें शर्म आती है सोच कर कि हमारा उस समय का प्रधानमंत्री जिस ब्लॉक के पीछे खड़ा था, जिसकी दोस्ती की दुहाई देता था, उस ब्लॉक का नेतृत्व उन्हें मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था। संयुक्त राष्ट्र भी भारत का पक्ष लेने के लिए तैयार नहीं था।
आज देखिए 2014 के बाद से भारत से पाकिस्तान की कोई तुलना ही नहीं है, चाहे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल रहा हो, डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल रहा हो और अब जो बाइडन का कार्यकाल हो। भारत को अमेरिका ने बराबरी का ओहदा प्रदान किया है । 2008 में जब डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार थी और अमेरिका में ओबामा सत्ता में थे, तब ओबामा प्रशासन ने अफगानिस्तान-पाक पॉलिसी में डॉ. मनमोहन सिंह के लाख प्रयास के बावजुद भारत की किसी भी प्रकार की भूमिका मानने में इनकार कर दिया था। आज कतर में जब तालिबान से वार्ता होती है, तब भारत के हितों की चिंता वही अमेरिका करता है।
भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर अमेरिका और तालिबान के बीच गुप्त समझौते पर मुखर होकर विरोध करते हैं, तो अमेरिकी डिप्लोमेट आकर भारत के हितों की हमेशा रक्षा करने का आश्वासन देते हैं। ब्रिटेन जब नस्लवादी वजहों के कारण भारत की कोरोना विरोधी वैक्सीन कोविशील्ड को मान्यता देने से इनकार करता है, तो भारत विकासशील देशों की तरह प्रतिक्रिया देने की बजाय बराबरी की प्रतिक्रिया देता है, तो उसका परिणाम है कोविशील्ड को मान्यता देने के लिए ब्रिटेन को अपनी नीतियां उदार करना पड़ती हैं।
क्वाड जैसा संगठन बनता है, जिसमें जपान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच रणनीतिक और व्यापारिक साझेदारी बनती है और अब उसकी तुलना चीन नाटो से कर रहा है। क्वाड यानी क्वाड्रीलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग। बात चाहे हिंद-प्रशांत क्षेत्र की हो या उससे इतर, दुनिया के लोकतांत्रिक देश क्वाड को चीन की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं पर नकेल की तरह देख रहे हैं। माना जाता है कि चीन के समानांतर एक आर्थिक और सामरिक गठजोड़ उसे चुनौती दे सकता है। अभी क्वाड अस्थायी समूह है, जिसे आर्थिक और सुरक्षा आधारित अंतरराष्ट्रीय संगठन के रूप में ढाला जा सकता है। फिलहाल, आत्मनिर्भरता की नीति पर आगे बढ़ते हुए भारत ने दिखाया है कि वो चीन का सामना करने के लिए तैयार है।
ये सब बातें संकेत हैं कि वैश्विक मंच पर भारत के अपने वजन को उसके दुश्मन भी स्वीकार करते हैं, और सच कहा जाए तो भारत से डरते भी हैं। यही तो है भारतीय राजनय की सफलता। जिस तरह से डोकलाम में चीन से आंखों में आंख डालकर बात की गई, पूर्वी लद्दाख विशेषत: गलवान में भारत के बलवानों ने जैसे चीन के जवानों को चित किया, ये सारे संकेत एकदम साफ हैं। भारत अब पिछलग्गू देशों की श्रेणी में नहीं है, बल्कि लीडर देश है। उसकी अपनी स्वतंत्र विदेशी नीति है। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका के सारे राष्ट्रपतियों से बराबरी और अपनत्व से बात करते हैं। जिस तरह की शारीरिक मुद्राएं ट्रंप के साथ होती हैं, वही ओबामा और वही बाइडन के साथ होती हैं यानी तीन सरकार बदल गई लेकिन भारत का अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ आत्मवत संबंध में सुधार ही हुआ। यह संकेत है कि भारत अपना राजनय अपनी शर्त पर करने की स्थिति में आ गया है। सिर्फ पंचशील सिद्धांतों और किताबी संस्करण लेकर नहीं टहलता, बल्कि श्रीरामचंद्र की रामनीतियों को मानने वाले हम किसी का अपमान नहीं करेंगे और अपना अपमान भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। सबसे बराबरी का रिश्ता, मानवता का रिश्ता चाहेंगे।
स्थिति यह है कि किसी जमाने में अमेरिका और ब्रिटन से जब कोई बड़ा राजनेता चलता था तब अमेरिका भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलने का प्रयास करता था। भारत से लौटते हुए बिना इस्लामाबाद गए उसकी वापसी नहीं होती थी। आज पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अमेरिका के राष्ट्रपति से बात करने का समय नहीं दिया जा रहा है और पाकिस्तान का सारा समय किसी तरह से अमेरिका से बात करने में झोंक दिया गया है। यूरोपीय देश पाकिस्तान को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका उसे आतंकी देशों की श्रेणी में आये दिन फटकार लगाता है। भारत की यह स्थिति अमृत महोत्सवी वर्ष में लाने में किसी का सबसे बड़ा योगदान है, तो इस विजय पर्व के शिल्पकार मोदी हैं।
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