सोशल मीडिया : निजता और नियंत्रण सिफर

Last Updated 15 Oct 2021 01:49:45 AM IST

पिछले दिनों फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम कुछ घंटों के लिए बंद क्या हुए लगा कि जिंदगी ठहर-सी गई है।


सोशल मीडिया : निजता और नियंत्रण सिफर

लोग बेचैन हो उठे। किसी का संदेश नहीं गया। किसी की पोस्ट नहीं चढ़ी। एक-दूसरे को फोन कर पूछ जाना लगा कि क्या फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम चल रहा है, या नेट में ही कुछ गड़बड़ है। भीड़ के बीच कुछ ऐसे लोग भी रहे जिन्हें खास फर्क नहीं पड़ा। बल्कि जिंदगी उन्हें पहले से कहीं ज्यादा सुकून भरी लगी।

सोशल मीडिया पर अधिक सोशल रहने की बीमारी ने हमें भीतर से कितना खोखला कर दिया है, इसका अहसास होकर भी हमें नहीं। दिन-रात मोबाइल में गर्दन झुकाए लोग शुतुरमुर्ग से जान पड़ते हैं। घर-परिवार, आस-पड़ोस से कोई मतलब नहीं। जो कुछ है वो या तो मोबाइल है, या फिर फेसबुक, व्हाट्सएप।

अभी हाल में फेसबुक की ही एक पूर्व कर्मचारी ने इस पर जिस प्रकार के गंभीर आरोप लगाए, उस आधार पर तो इससे तुरंत ही किनारा कर लेना चाहिए। किंतु ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि इसके बिना बहुत सी चीजों से हम कट जाएंगे। कैसे हम अपनी आत्ममुग्धताओं का प्रदर्शन कर पाएंगे। कैसे बता पाएंगे कि आज लंच में बिरयानी और डिनर में पालक की सब्जी खाई। कैसे दिखा पाएंगे कि हम फलां जगह घूमने-टहलने गए। कैसे अपनी किताबों की मार्केटिंग कर पाएंगे।

और भी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हमें लोगों को हर वक्त (फेसबुक-इंस्टाग्राम पर) बताते रहना जरूरी होता है। नहीं बताएंगे तो शायद एक वक्त का खाना ही न पचा पाएं जबकि सच्चाई यह है कि फेसबुक-इंस्टाग्राम- बेशर्मी के साथ-हमें उत्पाद बना कर हमारी निजताओं को बेचकर पैसा कमाने में लगे हैं। जाने कितना और कितनों का मानसिक नुकसान फेसबुक ने किया है। उन्हें अवसाद और अकेलेपन के गहरे समंदर में धकेल दिया है, लेकिन इस बीमारी से मुक्त कोई नहीं होना चाहता। सोशल मीडिया पर रहना ही सोशल होना है। शेष जमीनी संबंधों की कोई अहमियत रह ही नहीं गई।

कोरोना के बाद से फेसबुक जैसे माध्यमों पर हमारी निर्भरता ज्यादा ही बढ़ गई है। सब कुछ लाइव हो गया है। ऑफिस मीटिंग तो लाइव हुई ही हैं, साहित्यिक कार्यक्रम भी लाइव हो गए। बड़े-बड़े लेखक लाइव आने-बोलने के लिए इतना लालयित रहते हैं कि क्या कहें। घर बैठे ही उन्हें जुमले छोड़ने का माध्यम मिल गया है, तो क्यों न बोलेंगे। फेसबुक पर लाइव आना मानो हर लेखक का सपना-सा बन गया है। तंबाकू जैसे इस चस्के को छोड़ पाना क्या संभव होगा, शायद कभी नहीं।

इस चस्के का असर यात्रा तक पर हावी है। बस या ट्रेन में यात्रा करते वक्त अब शायद ही कोई अखबार या पत्रिका पढ़ते हुए मिले। हर हाथ में मोबाइल रहता है, और नजरें उसी पर गढ़ी रहती हैं। एक-दूसरे से बात या संवाद दूर की बात हो गई। समाज को कितना एकल और खोखला बना दिया है सोशल मीडिया ने। हंसना भी फेसबुक-इंस्टाग्राम पर और रोना भी यहीं। खाना भी यहीं। पहनना, ओढ़ना, बिछाना भी यहीं। कभी-कभी सोचता हूं कि कैसे झेल पाती होगी हमारी गर्दन निरंतर झुके रहने का बोझ!

क्या हम यह मान लें कि फेसबुक की शुरु आत लोगों को जोड़ने या एक-दूसरे के विचार जानने के लिए नहीं, बल्कि मुनाफा कमाने के लिए की गई थी। प्राय: जिस प्रकार की खबरें फेसबुक के खिलाफ छपती हैं, उन्हें पढ़कर तो यही लगता है। यह हमारे दिमाग को पढ़ रहा है। हम क्या चाहते हैं, आपस में क्या बातचीत करते हैं, उससे संबंधित विज्ञापन हमारे फेसबुक पेज पर हर वक्त तैरते रहते हैं।  इसकी शिकायतें भी खूब हुई हैं, लेकिन फेसबुक पर कोई फर्क नहीं पड़ा। न पड़ेगा। फेसबुक हो या इंस्टाग्राम, इन्हें लोगों के विचारों की जरूरत ही नहीं। इनके लिए कमाई ही महत्त्वपूर्ण है। हम सभी इस सच को जानते हैं किंतु नजरअंदाज इसलिए किए रहते हैं क्योंकि इन सोशल साइट्स के अलावा हमारा ठिकाना ही कहां है।

मानसिक और वैचारिक रूप से हम कितना बीमार हो चुके हैं, इसका अंदाजा भी हमें नहीं। ब्लॉगिंग के दिनों में भी हमारा वैचारिक पतन इतना नहीं हुआ था, जितना कि अब हो चुका है। यहां आलोचना और असहमति पर गालियां पड़ती हैं। सहनशक्ति गायब हो चुकी है। विपरीत विचार को सुनने व जानने का साहस ही नहीं बचा है किसी में। सोशल मीडिया के चलते वैचारिक स्तर पर कितना खोखला समाज बन चुके हैं हम। ये सब देख-पढ़कर अक्सर दुआ करता हूं कि जल्द ही वो समय आए जब हमें सोशल मीडिया से मुक्ति मिले। समाज अपने वास्तविक स्वरूप में नजर आए। आपस में संवाद का थमा सिलसिला पुन: चालू हो। लाइक और लाइव को ही जिंदगी न मानकर मानवता को जिंदगी माना जाए। काश! ऐसा ही कुछ हो।

अंशुमाली रस्तोगी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment