स्मरण : पदमा सचदेव-हिन्दी की सेवा करने वाली डोगरी लेखिका

Last Updated 08 Aug 2021 01:30:58 AM IST

हिन्दी को जन-जन की भाषा बनाने में गैर-हिन्दी क्षेत्रों के लेखकों और अध्यापकों ने भी भरसक अपना निस्वार्थ भाव से योगदान दिया है।


स्मरण : पदमा सचदेव-हिन्दी की सेवा करने वाली डोगरी लेखिका

इनके सहयोग के बिना हिन्दी देश के चप्पे- चप्पे में शायद बोली या समझी भी ना जाती। इस तरह के लेखकों में मूलत: डोगरी की कवयित्री और लेखिका पद्मा सचदेव का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने भाषा सेतुबंधन का अनुकरणीय कार्य किया। उन्होंने डोगरी के अलावा हिन्दी में भी लगातार रचना धर्मिंता का कार्य निर्वाह किया। उनके निधन से हिन्दी ने अपना एक बड़ा हितैषी को खो दिया है।
दरअसल, पंजाब और जम्मू क्षेत्र में हिन्दी सेवी लंबे समय से चलते आ रहे हैं। पदमा सचदेव जम्मू से थीं। अगर बात पंजाब की करें तो भीष्म साहनी, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, नरेन्द्र मोहन, नरेन्द्र कोहली, प्रताप सहगल समेत दर्जनों पंजाबी के लेखक देश कें बंटवारे से पहले और बाद में हिन्दी में रचनाकर्म करते रहे। यह समृद्ध परंपरा अब भी जारी है। एक समय तो लाहौर हिन्दी साहित्य का बड़ा केंद्र हुआ करता था।  पंजाब से सटे जम्मू में पदमा सचदेव के अलावा भी बहुत से लेखक अपनी मात़ृभाषा डोगरी के साथ-साथ हिन्दी में लगातार लिखते ही रहे हैं। पाकिस्तान बनने के साथ ही वहां जम्मू से सटे स्यालकोट में और पंजाब सूबे में हिन्दी को जबरन खत्म कर दिया गया।

यह सारा क्षेत्र हिन्दी भाषी न होने पर भी हिन्दी को लेकर स्नेह तथा सम्मान का भाव रखता था। खैर, जम्मू और हमारे पंजाब में हिन्दी की जड़ें तो बहुत ही गहरी हैं। वहां अब भी हिन्दी में श्रेष्ठ साहित्य रचा ही जा रहा है। पदमा सचदेव जी के बहाने ही सही हम बात कर रहे हैं हिन्दी के उन सेवियों की जो गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों से संबंध रखते हैं। अगर हम दक्षिण भारत की ओर का  रु ख करें तो वहां पर हिन्दी प्रचार सभा ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कमाल का योगदान दिया है। सन 1918 में मद्रास में ‘हिन्दी प्रचार आंदोलन’ की नींव रखी गई थी और उसी वर्ष स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ। वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान है और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय मूल के लोग इस संस्थान से हिन्दी में दक्षता प्राप्त कर ज्यादातर दक्षिण राज्यों में या देश के अन्य भागों में जाकर भी हिन्दी की सेवा कर रहे हैं।
हाल ही में ओलंपिक खेलों में भारत को वेटिलफ्टिंग का सिल्वर मेडल जितवाने वाली चानू मीराबाई तथा मुक्केबाज मेरीकॉम के भी इंटरव्यू देखे होंगे। ये सभी धारा प्रवाह हिन्दी बोलती हैं। अगर पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दी खूब बोली समझी जा रही है तो इसका श्रेय वहां के जुझारू हिन्दी प्रेमियों को जाता है। पूर्वोत्तर भागों में हिन्दी को स्थापित करने में सबसे पहले गांधी जी ने ही पहल की थी। गांधी जी ने असमिया समाज को हिन्दी से परिचित कराने के लिए  पूर्वोत्तर में हिन्दी इसलिए भी आराम से स्थापित हो गई, क्योंकि माना जाता है कि जिन भाषाओं की लिपि देवनागरी है, वह भाषा हिन्दी न होते हुए भी उस भाषा के जरिए ही हिन्दी का आसानी से प्रचार हो जाता है।
जैसे कि अरूणाचल में मोनपा, मिशि और अका, असम में मिरि, मिसमि और बोड़ो, नगालैंड में अडागी, सेमा, लोथा, रेग्मा, चाखे, तांग, फोम तथा नेपाली, सिक्किम में नेपाली लेपचा, भड़पाली, लिम्बू आदि भाषाओं के लिए भी देवनागरी लिपि ही है। पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है। संस्थान के तीन केंद्र गुवाहाटी, शिलांग तथा दीमापुर में सक्रिय हैं। ये तीनों केंद्र अपने-अपने  राज्यों में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के विशेष कार्यक्रम चलाते हैं।
बहरहाल,पदमा सचदेव के निधन के साथ ही अब उनके राजधानी के बंगाली मार्केट के टोडरमल रोड स्थित घर में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियों की यादें ही शेष रह गई हैं। पदमा सचदेव को उनके कविता संग्रह ‘मेरी कविता मेरे गीत’ के लिए 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। उन्हें वर्ष 2001 में पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया था। उन्होंने कविता तथा कहानी के अलावा उपन्यास, साक्षात्कार, निबंध और यात्रा वृतांत भी लिखे। उनकी शादी 1966 में ‘सिंह बंधू’ नाम से प्रचलित सांगीतिक जोड़ी के गायक सुरिंदर सिंह से हुई थी। पदमा सचदेव का मित्रता का दायरा बहुत विस्तृत था। स्वर कोकिला लता मंगेशकर भी उनकी सहेली थीं। इस दोस्ती का परिणाम यह निकला कि लता मंगेशकर ने पदमा सचदेव के लिखे कुछ गीत भी गाए। पदमा सचदेव ने अपनी पुस्तक ‘ऐसा कहां से लाऊं’ में लिखा कि उन्हें (लता मंगेशकर) को जहर देकर मारने की भी एक बार कोशिश हुई थी। यह घटना 1962 की है। पद्मा सचदेव को लता मंगेशकर ने बताया था कि उस घटना के बाद वह काफी कमजोर हो गई थी और लंबे समय तक बिस्तर पर पड़ी रहीं थी। हिन्दी पट्टी पदमा सचदेव के प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगी। हिन्दी के विकास और विस्तार के लिए अभी पदमा सचदेव सरीखी अनेक शख्सियतों की जरूरत है।

डॉ. आर.के. सिन्हा


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment