विश्लेषण : औरतों से खनखनाती किसानी

Last Updated 20 Jan 2021 02:06:04 AM IST

देश में तीन कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन छिड़ा है और अब महिलाओं ने भी ट्रैक्टर रैली के जरिए दुनिया को अपना दमखम दिखाने की सोची है।


विश्लेषण : औरतों से खनखनाती किसानी

कलम और कैमरे उसे किसान कहकर पुकारें या नहीं, इस बात से बेखबर वो मैदान में डटी हैं तो इसलिए कि उसे अपने घर-बार के साथ ही उन खेतों की भी खासी फिक्र है, जिनकी सार संभाल में उसकी भरपूर हिस्सेदारी रही है।
वैसे औरतें इस बात की परवाह कब का करना छोड़ चुकी कि उनकी पूछ कोई करे। दुनिया भले ही उसे ‘आधी दुनिया’ कहकर पुकारती हो, मगर उसकी अपनी दुनिया में वो भरी-पूरी है। परिवार और नवाचार सब में उसकी अपनी छाप रही है। कला, विज्ञान, अर्थ और समाज के पनपने में औरत के हुनरमंद हाथ और धारदार दिमाग लगा है, इसके सारे सुबूत हैं हमारे पास। जेंडर भेद के शर्मनाक पायदान पर खड़ी दुनिया की नई नीतियां इस ओर देखने लगी हैं कि वे कहीं दरकिनार न रहे। सभ्यताओं का इतिहास ये भी बताता है कि उसके लिए बने कपड़ों में कभी जेबें नहीं रहीं। यानी उसके हाथ खुले रहे और हमेशा कुछ-न-कुछ नया करने को कुलबुलाते रहे। आदमी बाहर की दुनिया की दौड़ धूप में रहा तो चूल्हा-चारा सबका इंतजाम करती हुई, वो हर बहस में भी शामिल होती रही। फिर भी दुनिया के बारे में उसका अपना नजरिया जो बना उसे कहा भी कम गया और सुना-समझा भी कम गया। आज मीडिया और बाकी मंचों की बहस में, खेती-किसानी के तजुर्बे बांटते हुए कहीं उसका चेहरा जेहन में नहीं आता। हां, किसान महिलाओं पर एक-आधा खास कार्यक्रम तैयार कर उसकी अनदेखी की भरपाई जरूर मान ली जाती है।

देहात में खेत-खलिहानों की बुवाई-कटाई के दौरान भरी गर्मी या ठिठुरती सर्दी को मात देती हुई वो खटती हुई दिखेगी। उसके ऐतराज की सुनवाई में हमारे ही कान कच्चे रहे हैं हमेशा। किसान नहीं कहकर उसे कामगार कहकर ही पुकारते रहे, ये गफलत तब तक जारी रहेगी जब तक हम पूरे मन से इसे खारिज नहीं करेंगे। देश में खालिस खेती में लगी औरतें करीब 32 फीसद हैं, लेकिन खेती से जुड़े बाकी कामों में करीब 8-10 करोड़ से ज्यादा औरतें जुटी हैं। 70-80 फीसद काम उसके भरोसे ही होता है खेती में। कानूनन उसे खेत और जमीन के अधिकार हासिल हैं मगर सिर्फ  12 फीसद को ही नसीब है ये हक अब तक। खेत में चूड़े-घाघरे-पल्लू में काम करती हुई किसान के लिए हमारी फिक्र के मुद्दे ये हों कि खेती के औजार उसकी सहूलियत और पहनावे के मुताबिक बने हैं कि नहीं? खेत में उगाने और बाजार में बेचने तक की सारी कड़ियां उसे मालूम होने के बावजूद नीतियां और कार्यक्रम उसके मुताबिक हैं कि नहीं? आदिवासी हों या छोटे किसान, हम उनसे मिल लें तो ऐतबार जरूर कर पाएंगे कि खेती से मिलने वाले लोन की अड़चनों, सरकारी फायदों, योजनाओं, खेतों में पानी की जरूरतों से लेकर बीज-मिट्टी की परख और फसल की कीमत, जैविक खेती के नफे-नुकसान तक के सारे मसलों पर अपनी गहरी समझ रखती हैं। देसी बीजों की तिजोरियां भी यही किसान हैं, जो खेती के नवाचारों और तकनीक को अपनाने में भी पीछे नहीं रहती।
राष्ट्रीय कृषि नीति के सातवें लक्ष्य में औरतों को मुख्यधारा में रखने के लिए खेती-किसानी के लिए बनी नीतियों-कार्यक्रमों में ‘जेंडर’ संतुलन की बात कही गई। देश में 70 के दशक में भारतीय महिलाओं की स्थिति पर पहली बार तैयार हुई राष्ट्रीय रिपोर्ट ‘टुर्वड इक्वलिटी’ में खेती को सबसे बड़े रोजगार की तरह पहचाना गया। इसमें कहा गया कि खेती के काम में लगी औरतें फसल कटाई के वक्त काम की दोहरी मार झेलती हैं। इसी तरह नब्बे के दशक में ‘श्रम शक्ति’ रिपोर्ट में असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों के हाल बयां करते हुए कहा कि खेती से जुड़ी औरतें कामकाज का भार ज्यादा सहती हैं। पिछले सालों में पद्मश्री पुरस्कारों की फेहरिस्त में दर्जन भर किसानों में दो महिलाओं को भी शामिल किया गया तो ये उनके जीवन भर की मेहनत की कमाई पूंजी ही थी। बिहार की राजकुमारी देवी अपने खेत और कुटीर उद्यम के सामान को साइकिल पर बेचकर ‘किसान चाची’ कहलाई तो ओडिशा की आदिवासी किसान कमला पुजारी ने देसी फसल को सहेजने और जैविक खेती का हुनर बांटने के लिए शोहरत हासिल की। राजस्थान की कोता बाई की कामगार से फिर किसान बनने और सैकड़ों गांवों की तकदीर बदलने की कहानी संयुक्त राष्ट्र ने अपने पन्नों में दर्ज की है। ऐसी लाखों किसानों, उनके सरोकारों को हम कहां देख-सुन पाए अभी।
साल 2007 में किसानों के लिए बनी ‘राष्ट्रीय नीति’ में किसान कहलाये जाने का दायरा बढ़ा दिया। यहां ‘जेंडर’ आड़े नहीं आता कहीं। फिर भी जब तक औरत को जमीन का हक नहीं मिलता तब तक न वो गिनती में रहेगी, ना ही हिसाब की किताबों में। महिला किसान एनटाइटलमेंट बिल-2011 में संसद में पेश हुआ। पारित भले नहीं हुआ, मगर इस बारे में खेती से जुड़ी औरतों को शामिल करते हुए खुली बहस तो होनी ही चाहिए अब। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में करीब साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा महिलाएं खेतिहर थीं। मगर समाज के भीतर के सवाल ये भी हैं कि जमीन के हक के बगैर किसानी में लगी औरतों के कई मसले छिपे रह जाएंगे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो कहता है कि 2019 में पहले के मुकाबले छह फीसद ज्यादा यानी कुल 42,480 किसानों, खेतिहर मजदूरों और खेती में दिहाड़ी करने वाले मजदूरों ने खुदकुशी की। किसानों में 5563 आदमी थे और 394 औरतें, खेतिहर मजदूरों में 3749 आदमी, 575 औरतें और दिहाड़ी पर काम करने वालों में 29,092 के मुकाबले 3467 औरतों ने मुश्किलों के आगे दम तोड़ा। साल 2020 में आए सर्वे के आईने में नजर आ रहा है कि देश के 11 राज्यों में औरतों की जमीन की खातेदारी में गिरावट है।
औरतों के लिए बन रहे हमारे नजरिए का आभास देने वाले ये आंकड़े बता रहे हैं कि कर्नाटक और तेलंगाना में 67 फीसद के आस-पास औरतों के हक में जमीन है बाकी जगह इसके नीचे की लकीर ही है। ताजा कृषि जनगणना का इशारा ये भी कि किसानी में औरतें 10.36 फीसद के मुकाबले 11.57 फीसद हो गई हैं। इस वक्त जरूरी ये है कि आंदोलनों से इतर भी वो अपनी सोच जाहिर करे। अपने हक की आवाज बुलंद करे। बिना ट्रैक्टर चलाए तो खेत की मिट्टी भी सांस नहीं लेती, लेकिन उसकी नजीर अपनी खुद की सोच से उपजी हो, उबलते हुए दिमागों से नहीं।

डॉ. शिप्रा माथुर


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