कोविड-19 : नजरिया अपना-अपना

Last Updated 23 Nov 2020 12:51:10 AM IST

पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना के कहर से निजात मिलने का इंतजार कर रही है।


कोविड-19 : नजरिया अपना-अपना

पर कोरोना को लेकर अलग-अलग लोगों का अलग-अलग नजरिया है। दुनिया में जिन परिवारों ने कोरोना के चलते अपने प्रियजनों को खो दिया है; उनके लिए ये त्रासदी गहरे जख्म दे चुकी है। जो मामूली बुखार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही पॉजिटिव से निगेटिव हो गए वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई जरूरत नहीं। जिनको कोरोना ने अब तक नहीं पकड़ा है वे पशोपेश में हैं। या तो लापरवाह हैं या किसी अनहोनी की आशंका से सहमे से दिन काट रहे हैं। उधर सरकारें और चिकित्सकों की जमात भी अलग-अलग खेमों में बंटी हुई है।
सबका सिरमौर बना विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोरोना को लेकर शुरू से विवादों के घेरों में है। इसके अध्यक्ष पर चीन से मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। जिस तरह कोरोना को लेकर इस संगठन ने शुरू में निर्देश जारी किए थे और आनन-फानन में सारी दुनिया में लॉकडाउन थोप दिया गया। जिस तरह इस महामारी को लेकर चीन की रहस्यमयी भूमिका रही है, उस सबसे तो ये पूरा मामला एक वैश्विक षड्यंत्र जैसा लगता है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। इस जमात में बहुत बड़ी तादाद में दुनिया के अनेक देशों के डॉक्टर, शोधकर्ता और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। जो हर दिन सोशल मीडिया पर अनेक वक्तव्यों, साक्षात्कारों या तकरे के जरिए कोरोना को षड्यंत्र सिद्ध करने में जुटे हैं। पर जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो षड्यंत्र के सिद्धांत को कोरी बकवास बताते हैं। वे हरेक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जिस तरह अतीत में ऐसे कई वैश्विक षड्यंत्र हुए हैं, जिनमें नाहक दुनिया में आतंक फैलाया गया और उससे दवा कंपनियों ने खरबों रुपये का मुनाफा कमाया।

1984 की बात है; जब मैं लंदन में था तो अचानक पेरिस से खबर उड़ी कि सुप्रसिद्ध बॉलीवुड सेलिब्रिटी रक हडसन को एड्स हो गया है। अगले ही वषर्, वह अपनी एड्स की बीमारी का खुलासा करने वाली हॉलीवुड की कुछ पहली हस्तियों में से एक बन गए। 1985 में, 59 साल की उम्र में, हडसन एड्स से मरने वाली पहली प्रमुख हस्ती थे। उसके बाद पूरे विश्व में एड्स को लेकर जो भारी प्रचार हुआ, आतंक फैलाया गया, एचआईवी टेस्ट का जाल फैलाया गया; उसके मुकाबले एड्स से मरने वालों की संख्या नगण्य थी, अगर एड्स कोई बीमारी थी तो। पर तभी दुनिया के 1000 मशहूर डॉक्टरों, जिनमें 3 नोबल पुरस्कार विजेता भी थे, ने बयान जारी करके (पर्थ उद्घोषणा) दुनिया को चेताया था कि एड्स कोई बीमारी नहीं है। ऐसी सब वैश्विक (तथाकथित) बीमारियों से मरने वालों की संख्या से कई गुना ज्यादा लोग अशुद्ध पेयजल, सड़क दुर्घटनाओं, कुपोषण, मधुमेह और हृदयाघात से मरते हैं। जितना पैसा भारत सरकार ने एड्स के प्रचार-प्रसार पर खर्च किया, उसका एक हिस्सा अगर आम आदमी को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर खर्च किया जाता तो बहुत जानें बच सकती थीं।
इन सब सवालों को 20 बरस पहले अपने इसी कॉलम में मैंने जोर-शोर से उठाया था और मणिपुर और हरियाणा जैसे राज्यों में एड्स संक्रमण के ‘नाको’ के आंकड़ों को झूठा सिद्ध किया था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दिनों में कोरोना को लेकर भी किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय घोटाले का सप्रमाण पर्दाफाश हो जाए। जहां तक मौजूदा दिशा-निर्देशों का सवाल है, वैश्विक माहौल को देखते हुए इन हिदायतों को मानने में कोई नुकसान भी नहीं है। मास्क पहनना, बार-बार साबुन से हाथ धोना या सामाजिक दूरी बनाए रखना ऐसे निर्देश हैं, जिन्हें मानना बहुत कठिन काम नहीं है। पर एक बात सभी चिकित्सक एक मत हो कर कह रहे हैं; चाहे वो एलोपैथ के हों, आयुव्रेद के हों या होम्योपैथ के-और वो ये कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने से कोविड ही नहीं अनेक दूसरी बीमारियों से भी सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। लगातार गर्म पानी पीना, दिन में कम-से-कम दो बार भाप लेना, आयुव्रेद में सुझाए गए काढ़े पीना, नियमित व्यायाम करना और घर का शुद्ध पौष्टिक खाना खाना।
कोविड-19 के आतंककारी दौर में पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों की, खासकर वैदिक संस्कृति की, श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और अब अपना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के हर प्रांत में भोजन में हल्दी सदियों से प्रयोग होती आ रही है। पर दो दशक पहले तक पश्चिमी देशों के लोग भारतीय सब्जी की करी (तरी) को घृणा की निगाह से देखते थे। गोरे बच्चे भारतीय सहपाठियों के लंच बक्स में हल्दी पड़ी सब्जी को देख कर उसे ‘टट्टी’ कह कर मजाक उड़ाते थे। आज पूरी दुनिया हल्दी की वकालत कर रही है। दूसरे व्यक्तियों से अकारण या सामाजिक शिष्टाचार के तहत गले या हाथ मिलाना वैदिक संस्कृति में वर्जित था। इसलिए भारतीय समाज में छुआछूत की प्रथा थी।
घर में बालक का जन्म हो या किसी की मृत्यु या चेचक या पीलिया जैसा बुखार, इन सब परिस्थितियों में 15 से 40 दिन का सूतक मानने की प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है, जिसे आज बड़े ढोल-ताशे के साथ ‘क्वारंटाइन’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इसी तरह भोजन पकाने और खिलाने की भारतीय संस्कृति में शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। आम भारतीय हरेक जगह, हर परिस्थिति में बना भोजन खाना पसंद नहीं करता था, जिसे आधुनिकता की मार ने भ्रष्ट कर दिया। कोरोना के आतंक में दुनिया इस बात के महत्त्व को भी समझ रही है। भविष्य में जो भी हो कोरोना ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है।

विनीत नारायण


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