मीडिया : एक बीरबल की जरूरत

Last Updated 22 Nov 2020 01:29:49 AM IST

एक वक्त ऐसा भी रहा है जब अखबारों में ‘हंसना मना है’ जैसे शीषर्कों के नीचे चुटकुले छपे रहते थे और आप हम इस नटखट शीषर्क से ही समझ जाते थे कि इसे जरूर पढ़ना है।


मीडिया : एक बीरबल की जरूरत

चालीस पचास बरस पहले के अखबारों की भाषा पॉजिटिव और ‘सबको यथायोग्य’ कहने वाली हुआ करती थी। इस ‘भद्रता’ से उबकर हम जैसे ‘हंसना मना है’ को ‘हंसना जरूरी है’ बना लेते थे और चुटकुलों को चाव से पढ़ा करते थे। अधिकतर चुटकुले औरतों पर, साले जीजा पर, बुद्धुओं पर,पंडितों पर, कंजूसों सेठों पर हुआ करते थे। तब दूसरे को बुद्धु बनाने की कला में हास्य का एक बड़ी तरकीब थी। यहा वाक्पटुता और भाषा में लेषालंकार के खेल होते।
बहुत दिनों तक तो एक धर्मिक समुदाय के लोग खुद ही अपनी जमात को लेकर एक से एक चुटकुले सुनाया करते थे और बाकी भी इससे प्ररित होकर अपनी जाति-धर्म के प्रतीकों की पोल खोलने वाले चुटकुले कहा करते। तब किसी की ‘इज्जत हतक’ नहीं होती थी। यह हंसी की सहिष्णु संस्कृति थी जो हर किस्म के पाखंड पर हंसती थी हंसाती थी। इसके पीछे ‘हास्य’ की लंबी परंपरा थी। भरत मुनि ने दो हजार बरस पहले ही अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में जिन नौ रसों की चरचा की थी; उनमें एक ‘हास्यरस’ था और हास्य प्रसंगों के लिए नाटकों में विदूषक होते थे। लोग कटूक्ति और हास्योक्ति में फर्क कर सकते थे।
 पुरानी फिल्मों के ‘जोकर’ गोप से लेकर, जानी वाकर, महमूद से लेकर जानी लीवर तक सब किसी न किसी की नकल उड़ाकर हास्य पैदा करते रहे। जिनकी ‘नकल’ उड़ाई जाती वे बुरा नहीं मानते थे क्योंकि ऐसी नकल सब के लिए आनंदकारी होती।

जब टीवी आया तो कामेडी शो होने लगे और बहुत से कामेडियन ‘नकल’ (मिमिक्री) करके मनोरंजन करने लगे। उन्हीं में एक राजू श्रीवास्तव थे, जो आज भी यूट्यूब पर सबकी नकल करके हंसाते हैं लेकिन हमारे जाने उनकी कामेडी पर आजतक किसी ने ‘इज्जत हतक’ का केस नहीं किया। इसी तरह हिंदी के अनेक हास्य कवि अपनी हास्य कविताओं से हजारों की भीड़ का मनोरंजन करते हैं, लेकिन उनकी हास्य कविताओं पर कोई केस नहीं हुआ। इसलिए कि ये ‘हंसी’ और ‘बदतमीजी’ में फर्क समझते हैं और ‘उपहास’ और ‘कटूक्ति’ में फर्क समझते हैं। हर समझदार कामेडियन जानता होता है कि हास्य कलाकार की भी एक लक्ष्मण रेखा होती है जिसे ‘क्रॉस’ करना ‘आफत’ बुलाना है, कि एक बार पब्लिक की नजरों से गिरे तो फिर कोई पूछने वाला नहीं! लेकिन स्टैंडअप कामेडियन की नई फसल ‘दोगली’ है। वह ‘हाफ अंग्रेजी’ ‘हाफ हिंदी’ है। उसके आदर्श अंग्रेजी के स्टैंडअप कामेडियन हैं और सोशल मीडिया के कारण वे अपनी ‘बदतमीजी’ को भी ‘कामेडी’ मानते हैं।
स्टैंडअप कामेडियन कुणाल कामरा हमें इसी कोटि के कामेडियन नजर आते हैं जो ‘कटूक्ति’ को ‘कामेडी’ समझते हैं। उनकी दो ताजा ‘कामेडियां’ याद करें: एक में वे एक हवाई जहाज में एक चैनल के एंकर के सामने खड़े होकर देर तक बदतमीजी करते रहते हैं, लेकिन वह नामी एंकर जो खुद उत्तेजित बहसें कराने का आदी है, इस समूची बदतमीजी के दौरान एंकर एकदम शांत बना रहता है।  ऐसे ही, जब एक  मामले में जब बड़ी अदालत ने उस एंकर को जमानत दे दी तो कुणाल कामरा चीफ जस्टिस के प्रति ही कुछ ऐसी ‘अशोभन अभिव्यक्तियां’ कर बैठे जो किसी भी मानी में ‘कामेडी’ नहीं कही जा सकतीं! जब कुछ वकीलों ने उनकी इस तरह की अभिव्यक्ति को ‘अदालत की अवमानना’ मानकर शिकायत की तो एटर्नी जनरल जी ने उसे ‘अदालत की अवमानना’ का केस मानकर कुणाल पर केस चलाने को कह दिया। इस पर फिर हमारे इस कामेडियन ने ताल ठोक दी कि वो माफी नहीं मांगेगा। उनके मित्र  इसे कलाकार की आजादी पर खतरा बताने लगे। अब कौन समझाए कि ‘कामेडी’ और ‘बदतमीजी’ में फर्क होता है और बदतमीजी और कलाकारी में भी फर्क होता है।
उपहास और विनोद के इतिहास में ‘अकबर बीरबल के विनोद’ उम्दा उदाहरण हैं। तब एक दरबारी एक राजा के साथ ‘प्रैक्टिकल जोक’ तक कर सकता था। बीरबल ऐसा हाजिर जबाव था कि उसकी कड़वी बात भी बादशाह को कड़वी नहीं लगती है। उच्च कोटि की हास्यकला ऐसा ही करती है। वह कड़वी बात कहती है तो कुछ इस तरह कि वह भी मीठी लगे। स्पष्ट है: ‘बीरबल’ होने के लिए एक ‘अकबर’ चाहिए।  एक ‘अकबर’ होने के लिए ‘बीरबल’ चाहिए। बिना कला के ‘बीरबल’ नहीं हो सकता और बड़े दिल के बिना कोई ‘अकबर’ नहीं हो सकता!

 

सुधीश पचौरी


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