आरसेप : शामिल नहीं होने के मायने

Last Updated 18 Nov 2020 02:20:26 AM IST

हाल ही में 15 नवम्बर को दुनिया के सबसे बड़े ट्रेड समझौते रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) ने 15 देशों के हस्ताक्षर के बाद मूर्त रूप ले लिया है।


आरसेप : शामिल नहीं होने के मायने

इस आरसेप समूह में 10 आसियान देशों-वियतनाम, लाओस, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रूनेई और कंबोडिया के अलावा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं।
गौरतलब है कि आरसेप समूह के देशों में विश्व की कुल जनसंख्या की करीब 47.6 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जिसका वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में करीब 31.6 प्रतिशत और वैश्विक व्यापार में करीब 30.8 प्रतिशत योगदान है। आरसेप समझौते पर हस्ताक्षर के बाद समूह के मेजबान देश वियतनाम के प्रधानमंत्री गुयेन जुआन फुक ने कहा कि आठ साल की कड़ी मेहनत के बाद हम आधिकारिक तौर पर आरसेप वार्ताओं को हस्ताक्षर तक लेकर आ पाए हैं। आरसेप समझौते के बाद बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को समर्थन देने में आसियान की प्रमुख भूमिका रहेगी। आरसेप के कारण एशिया प्रशांत क्षेत्र में एक नया व्यापार ढांचा बनेगा और उद्योग कारोबार सुगम हो सकेगा। साथ ही कोविड-19 से प्रभावित आपूर्ति श्रृंखला को फिर से खड़ा किया जा सकेगा। आरसेप से सदस्य देशों के बीच व्यापार पर शुल्क और नीचे आएगा, जिससे समूह के सभी सदस्य देश लाभांवित होंगे।

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष नवम्बर 2019 में आरसेप में शामिल नहीं होने की घोषणा की थी। देश के इस रु ख में पिछले एक वर्ष के दौरान कोई बदलाव नहीं हुआ है। इस बार नवम्बर 2020 में फिर दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (आसियान) सदस्यों के साथ मोदी ने स्पष्ट किया कि मौजूदा स्वरूप में भारत आरसेप का सदस्य होने को इच्छुक नहीं है। भारत के मुताबिक आरसेप के तहत देश के आर्थिक तथा कारोबारी हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। आरसेप समझौते के मौजूदा प्रारूप में आरसेप की मूल भावना तथा वे मार्गदर्शन सिद्धांत परिलक्षित नहीं हो रहे हैं जिन पर भारत ने सहमति दी थी। साथ ही आरसेप समझौते में भारत की चिंताओं का भी निदान नहीं किया गया है। आरसेप समूह में शामिल नहीं होने का एक कारण यह भी है कि आठ साल तक चली आरसेप वार्ता के दौरान वैश्विक आर्थिक और व्यापारिक परिदृश्य सहित कई चीजें बदल चुकी हैं तथा भारत इन बदलावों को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। वस्तुत: भारत का मानना है कि आरसेप समझौते में शामिल होने से राष्ट्रीय हितों को भारी नुकसान पहुंचता और आरसेप भारत के लिए आर्थिक बोझ बन जाता। इस समझौते में भारत के हित से जुड़ी कई समस्याएं थीं और देश के संवेदनशील वगरे की आजीविका पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता। पिछले काफी समय से घरेलू उद्योग और किसान इस समझौते का भारी विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें चिंता थी कि इसके जरिये चीन और अन्य कई आसियान के देश भारतीय बाजार को अपने माल से भर देंगे।
इसके अलावा चीन के बॉर्डर रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) की योजना, लद्दाख में उसके सैनिकों की घुसपैठ, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की बढ़ती हैसियत में रोड़े अटकाने की चीन की प्रवृत्ति ने भी भारत को आरसेप से दूर रहने पर विवश किया। यह बात भी विचार में रही कि भारत ने जिन देशों के साथ एफटीए किया है, उनके साथ व्यापार घाटे की स्थिति और खराब हुई है। मसलन दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी भारत का एफटीए है, लेकिन इन देशों के साथ एफटीए ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपेक्षित फायदा नहीं पहुंचाया है। ऐसी आर्थिक और कारोबार संबंधी प्रतिकूलता के बीच आरसेप के मौजूदा स्वरूप में भारत के प्रवेश से चीन और आसियान देशों को भारत में कारोबार के लिए ऐसा खुला माहौल मिल जाता, जो भारत के हितों के अनुकूल नहीं होता। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के कृषि व दूध उत्पादों को भी भारत का विशाल बाजार मिल जाता, जिनसे भारतीय कृषि और दूध बाजार के सामने नई मुश्किलें खड़ी हो जाती।
यद्यपि अब आरसेप समझौता लागू हो चुका है, लेकिन भारत की आर्थिक अहमियत के कारण भारत के लिए विकल्प खुला रखा गया है। कहा गया है कि  भारत यदि आरसेप समझौते को स्वीकार करने के अपने इरादे का लिखित रूप में प्रस्तुत करता है, तो उसकी नवीनतम स्थिति तथा इसके बाद होने वाले किसी बदलाव को ध्यान में रखते हुए समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देश बातचीत शुरू कर सकते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यह भी दिखाई दे रही है कि यदि अब भारत का मन बदले और वह आरसेप में शामिल होना भी चाहे तो राह आसान नहीं होगी क्योंकि चीन तमाम बाधाएं पैदा कर सकता है। चाहे आरसेप से भारत ने दूरी बनाई है, लेकिन वैश्विक बाजार में  भारत को निर्यात बढ़ाने के लिए नई तैयारी के साथ आगे बढ़ना होगा। चूंकि कोविड-19 की चुनौतियों के बीच आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत भारत सरकार संरक्षण नीति की डगर पर आगे बढ़ी है। इसके लिए आयात शुल्क में वृद्धि का तरीका अपनाया गया है।
आयात पर विभिन्न प्रतिबंध लगाए गए हैं। साथ ही उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन भी दिए गए हैं। ये सब बातें वैश्विक कारोबार के लिए कठिनाई पैदा कर सकती हैं। अतएव निर्यात की राह सरल बनाने के लिए कठिन प्रयासों की जरूरत होगी। हम उम्मीद करें कि सरकार के द्वारा 15 नवंबर को आरसेप समझौते से दूर रहने का निर्णय करने के बाद भी भारत आसियान देशों के साथ नये सिरे से अपने कारोबार संबंधों को इस तरह विकसित करेगा कि इन देशों में भी भारत के निर्यात संतोषजनक स्तर पर दिखाई दे सकें।
हम उम्मीद करें कि सरकार नये मुक्त व्यापार समझौतों की नई रणनीति की डगर पर आगे बढ़ेगी। हम उम्मीद करें कि सरकार के द्वारा शीघ्रतापूर्वक यूरोपीय संघ के साथ कारोबार समझौते को अंतिम रूप दिया जाएगा। साथ ही अमेरिका के साथ व्यापार समझौते को भी अंतिम रूप दिए जाने पर आगे बढ़ा जाएगा। ऐसी निर्यात वृद्धि और नये मुक्त व्यापार समझौतों की नई रणनीति के क्रियान्वयन से ही भारत अपने वैश्विक व्यापार में वृद्धि करते हुए दिखाई दे सकेगा।

डॉ. जयंतीलाल भंडारी


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