मीडिया : पत्रकारिता का अंत

Last Updated 04 Oct 2020 12:04:27 AM IST

एक पुराना हिंदी चैनल ‘हाथरस की बेटी’ को न्याय दिलाने की मुहिम चलाए है तो अपेक्षाकृत एक नया हिंदी चैनल ‘बिहार के बेटे’ को न्याय दिलाने की मुहिम चलाए है।


मीडिया : पत्रकारिता का अंत

यह यूरोपीय ‘पेप्पराजी’ का देसी वाला ‘हल्लाबोल चेहरा’ है, जो  ‘पीछे पड़ाउ’ है, जो किसी के ‘चुप रहने’ के ‘कानूनी हक’ को ‘हक’ नहीं मानता और जिस-तिस के मुंह में गन-माइक ठूंसकर ‘पीछे पड़े रहने’ को ही असली पत्रकारिता मानता है। ‘पीछे पड़े रहो’ का तर्क कहता है: विक्टिम बनने के हालात पैदा करो, फिर भी कोई विक्टिम नहीं बनाए तो खुद बहाना करके बन जाओ!
इन दिनों अपनी टीवी पत्रकारिता इसी तरह की ‘चंटई’ सीख रही है जो पत्रकारिता के किसी स्कूल में नहीं सिखाई जाती, लेकिन ‘टीआरपी’ की होड़ सिखाती है। जब से हिंदी में हल्लाबोल छाप एक अंग्रेजी एंकर का और भी  गलीछाप हिंदी संस्करण आया है तब हिंदी एंकरों-रिपोर्टरों में खुद को और भी घटिया गली छाप बनाने की होड़ लग गई है। जिस तरह उस नये हल्लेबाज ने टीआरपी छीनी है, उसी तरह बाकी के हिंदी चैनल छीनना चाहते हैं! नाम न्याय का है नजर टीआरपी पर है, लेकिन यह सब पत्रकारिता के कर्म के लिए शुभ नहीं है। इसीलिए जब से उस गलीछाप चैनल ने ‘बिहार के बेटे’ को न्याय दिलाने के हल्ले से अपने को टाप पर ला बिठाया है, तभी से दूसरे हिंदी चैनलों में आग लगी है कि कुछ ऐसा करें कि उसे टॉप से उतारें और अपने को बिठाएं। इसीलिए एक चैनल ने ‘हाथरस (यूपी) की बेटी को न्याय’ के नारे को पकड़ा है। वरना जिस देश में हर पंद्रह मिनट पर ‘रेप’ होता हो और साल में छियानबे हजार आत्महत्या होती हों वहां एक रेप या एक आत्महत्या के लिए कोई चैनल क्यों मरे? इसीलिए एक हिंदी चैनल ने पीड़िता के घरवालों की रिपोर्ट के लिए उतार दिए, जिनमें लेडी रिपोर्टरों की संख्या अधिक रही। उनमें से एक सुबह से पुलिसवालों से एक ही सवाल पूछती रही कि आप हमें घर वालों से क्यों नहीं मिलने दे रहे? वह कभी सड़क पर धरना सा देती, कभी सड़क पर दौड़ती पुलिस वाले पीछे भागते-रोकते दर्शक दंग होकर देखते कि क्या वह पुलिस का घ्ेारा तोड़कर जा पाएगी या पकड़ ली जाएगी पूरे दिन यही होता रहा। सारे रिपोर्टर देर रात तक यही करते रहे। रात के दस बजे उस वीराने में सैकड़ों पुलिसवालों के बीच लेडी रिपोर्टर की ये हिम्मत हमें दहशत में डालती कि रात को पता नहीं इनके साथ क्या हो? हम रिपोर्टर की हिम्मत की मन ही मन दाद देने लगते कि रिपोर्टर हो तो ऐसी हो!

ऐसे उत्तेजित सीनों में ‘कुछ भी हो सकता है’ वाली रहस्यमयता ही इनको जमकर बेचती है। आप सोचते हैं कि देखें, कब लाठी चलती है? कब गोली? आप दृश्य की ‘लोमहषर्कता’ से बंधे देखते रहते हैं और चैनल की टीआरपी बढ़ती रहती है। इसीलिए इस  सारी ‘हीरोइक्स’ के बीच भी सावधानी बरती गई। रिपोर्टरों व एंकरों ने कोसा तो सिर्फ स्थानीय प्रशासन को कोसा, लेकिन उनसे ‘ऊपर वालों’ को नहीं। यह है इस नई अभियानवादी पत्रकारिता का सच।
इसी तरह गांधी जयंती के दिन ही दिल्ली के जंतर मंतर वही हल्ला बोल चैनल बिहार के बेटे के केस को ‘धारा तीन सौ दो’ में लाने के लिए मुहिम चला रहा था। इसके लिए बिहार के बेटे के दो दोस्त भूख हड़ताल पर ‘बैठे’ दिखलाए गए और हल्ला बोल रिपोर्टर मजमेबाजी की भाषा में रिपोर्ट करते रहे। ऐसी कवरेजों के जरिए पब्लिक से मीडिया का एक नया अन-क्रिटिकल और अश्लील सा रिश्ता बनाया जा रहा है: पब्लिक चैनल की तारीफ करती है और चैनल उसे प्यार से दिखाता है। पब्लिक को पंद्रह सेकिंड की अमरता मिलती है, उधर चैनल को अधिक टीआरपी मिलती है, वह विज्ञापन का रेट बढ़ता है, चैनल कमाई करता है। परस्पर की चापलूसी के इस गणित में  न्याय की बात तो बहाना है। असल आइडिया तो चैनल का पैसा कमाना है।
शायद आजकल अधिकतर  चैनल खबरधर्मी न होकर ‘अभियानधर्मी’ हो चले हैं। खबर को खबर की तरह न देकर उसमें से एक खल खोज कर, उसके खिलाफ अभियान चलाकर, अदालत लगाकर, सजा देकर पब्लिक को कभी न मिल पाए न्याय की भावना को अपने न्याय की पुड़िया देकर तुष्ट करते हैं और अपनी कमाई करते हैं। ऐसे हल्लेदार दृश्य देखकर न्याय के लिए तरसते दर्शकों का ‘विरेचन’ भी  होता है। इसीलिए आजकल हम एंकर-रिपोर्टर के मुंह से उसी भडकाऊ भाषा को सुनना चाहते हैं जो हमारी ‘लिंच मानसिकता’ को जगाए, लेकिन ध्यान रहे, अगर टीवी पत्रकारिता भी अभियानी पत्रकारिता हो जाएगी तो एक दिन ऐसा आएगा कि दलों और चैनलों में फर्क नहीं रह जाएगा और वो दिन ‘पत्रकारिता के अंत’ का दिन होगा!

सुधीश पचौरी


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