सामयिक : कांग्रेस और देश का भविष्य
अंग्रेज-विरोधी संघर्ष में देश को स्वाधीनता तक लाने में जिस कांग्रेस की अग्रणी भूमिका थी, वह आज अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही है।
सामयिक : कांग्रेस और देश का भविष्य |
क्या इसका प्रभाव केवल एक राजनीतिक दल के रूप में सिर्फ कांग्रेस पर पड़ेगा या देश के जनतांत्रिक भविष्य से भी उसका संबंध है?
पिछले पांच-छह वर्षो मे भारत गहन आर्थिक दुष्चक्र में फंसा है। कोरोना महामारी ने इसे और गंभीर बना दिया है। बाहर निकलने के लिए जो रास्ते अपनाए जा रहे हैं, वे नयी समस्याओं को जन्म देने वाले हैं, लेकिन न इसका कारगर प्रतिवाद है, न किसी प्रतिवाद पर सरकार ध्यान देने को तैयार है। क्या कांग्रेस के रूप में सशक्त प्रतिपक्ष होने पर यह संभव था? कांग्रेस-मुक्त भारत का लुभावना नारा क्या सत्ता की निरंकुशता को सुदृढ़ करने की अभिलाषा नहीं है? कांग्रेस का संकट क्या महज परिवारवाद अथवा सत्तालोलुप नेताओं की महत्त्वाकांक्षा का नतीजा है या आर्थिक-सामाजिक नीतियों से उसका कोई लेना-देना है? स्वभावत: राजनीतिक प्रश्नों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना आवश्यक है। कांग्रेस के अंदरूनी संकट की बड़ी झलक तब मिली जब 23 वरिष्ठ नेताओं ने यह मांग करते हुए कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा कि संगठन को सुधारें, उसे चुनौतियों का सामने करने में सक्षम बनाएं और पार्टी का अस्तित्व बचाएं। किन्तु ऐसा आभास हुआ कि नेतृत्व ने अपने ऊपर हमला समझा हालांकि पत्र में गांधी परिवार की आलोचना नहीं थी। यह आलोकतांत्रिक रवैया था।
असंतोष का एक कारण वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा भी है। राहुल और उनके सलाहकार वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करके निर्णय लेते हैं, जिन वरिष्ठ नेताओं ने अपना जीवन कांग्रेस में खपा दिया और अब कहीं सत्ता के आसपास भी पार्टी को नहीं देखते, वे इस स्थिति से क्षुब्ध होते हैं, लेकिन गांधी-परिवार के बाहर यदि कोई नेतृत्व तैयार है तो निरंतर संकटग्रस्त होती पार्टी में वह आगे आता। या तो कांग्रेस का नेतृत्व इतना परिवार-केंद्रित हो गया है या दूसरे नेताओं में हिम्मत और क्षमता का अभाव है कि कोई विकल्प नहीं मिलता। नेतृत्व परिवर्तन के साथ विचारधारा और कार्यक्रम का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। इंदिरा गांधी के दूसरे कार्यकाल से नरम हिन्दुत्व का उपयोग और नरसिंह राव के समय से उदारीकरण की नीति-इसका राजनीतिक फायदा दक्षिणपंथ को हुआ। उसी जमीन पर कांग्रेस अपने पुनरुद्धार की आशा नहीं कर सकती। लगता है कि सत्ता से दूर रहने की बेचैनी में नीतियों का सवाल गौण हो गया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया यह बेचैनी दिखा चुके हैं। इसीलिए सीधे भाजपा में शामिल हो गए। उनके लिए सांप्रदायिकता या कॉर्पोरेट-परस्त नीतियों का कोई अर्थ नहीं रहा। राहुल से एक समस्या यह भी है कि सांप्रदायिकता और कॉर्पोरेट-परास्त नीतियों के प्रश्न पर उनका रुख भाजपा और क्षेत्रीय दलों से ही नहीं, आम कांग्रेसियों से भी अलग दिखता है। 2019 के लोक सभा चुनाव में पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे में राहुल ने कहा था, ‘2019 में हमारा संघर्ष एक राजनीतिक दल से नहीं बल्कि पूरे भारतीय राज्ययंत्र से था, जिसके हर अंग को हमारे के खिलाफ तैनात कर दिया गया था। अब यह बात पूरी तरह साफ है कि भारत में तटस्थ संस्थाएं नहीं रह गई हैं। आरएसएस का लक्ष्य है देश की संस्थाओं पर कब्जा करना, वह बहुत हद तक पूरा हो गया है।’
दूसरी तरफ वे भाजपा सरकार की अपनी आलोचना में बारंबार कहते आए हैं कि जनता के अधिकार छीनकर मोदीजी अपने कॉर्पोरेट दोस्तों को उपकृत कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस के भीतर जो संघर्ष छिड़ा है, उसका विचारधारात्मक पहलू महत्त्वपूर्ण है। इस संघर्ष के दो निर्णायक मुद्दे हैं: आरएसएस की पूरी रणनीति का मुकाबला और भारत के आर्थिक भविष्य का विकल्प। इतिहास बताता है कि सातवें दशक के अंत में अपने सबसे निर्णायक विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के कांग्रेस ने अधिक जनतांत्रिक और जनहितकारी नीतियां अपनाई। राजाओं का प्रिवी पर्स खत्म करने से लेकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण तक अनेक प्रगतिशील कदम उठाए गए, जिन्होंने इंदिरा गांधी को सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया। यही बात यूपीए-1 में देखी गयी, जब किसानों की कर्जमाफी से लेकर मनरेगा तक जनिहतकारी कदमों ने कांग्रेस के लड़खड़ाते कदमों को संभाल दिया। कांग्रेस का अंत:संघर्ष नीतियों के इस पक्ष पर उदासीन लगता है।
कांग्रेस के पुनर्जीवन की एक समस्या यह भी है कि अपना खोया जनाधार फिर से पाने के लिए चुनाव में जनमत कैसे जुटाया जाय? ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम का गणित आज गड़बड़ा गया है। पिछड़ा समुदाय पहले भी कांग्रेस के साथ अधिक नहीं था। ब्राह्मण भाजपा के साथ चले गए, दलित बसपा या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ। सामाजिक तनाव और अस्मितावादी राजनीति के चलते अब ब्राह्मणों को वापस लाने की रणनीति वही नहीं होगी जो दलितों को लाने की है। इसका समाधान कांग्रेस के नये-पुराने किसी नेता-समूह के पास नहीं दिखता। मोदी सरकार की नीतियों से असंतोष बढ़ रहा है लेकिन नीतिगत या राजनीतिक विकल्प के अभाव में वह दिशाहीन भटक रहा है। मोदी सरकार इस विकल्पहीनता का फायदा उठाना जानती है। आर्थिक मंदी से बेरोजगारी तक किसी समस्या का समाधान निकालने की जगह वह सांस्कृतिक वृत्तान्त के माध्यम से लोगों को बाँधने में कुशलता प्रदर्शित करती है। मुस्लिम-विरोधी उन्माद से लेकर धार्मिंक भावनाओं के उभार तक उसके सभी सांस्कृतिक प्रयत्न आज़ादी के बाद विकसित धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र के विपरीत दिशा में जाते हैं।
धर्माधता के साथ नायक-पूजा की भावना संबंधित है जिसका फायदा यह है कि सरकार की असफलतों के बावजूद मोदी के प्रति लोगों का विश्वास कम होता नहीं दिखता। महामारी के भयावह दौर में सरकार ने अचानक तालाबंदी के कारण तबाह हो गए मजदूरों की चिंता न करके कॉर्पोरेट घरानों की चिंता की, जिसपर 26 अगस्त को सर्वोच्च अदालत ने फटकार लगाई कि सरकार का काम उद्योगों और नागरिकों के बीच ‘संतुलन’ रखना है, लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं दिखा। जिस हड़बड़ी में कृषि विक्री और ठेका खेती के कानून पास किए गए तथा श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर मजदूरों के वेतन से लेकर रखने-निकालने के अनियंत्रित अधिकार तक कॉर्पोरेट के हाथ में सारी शक्तियां सौंपी जा रही हैं, वे गंभीर परिणामों वाली हैं। इन नीतियों पर ध्यान केंद्रित करके कांग्रेस न केवल अपने संकट से उबर सकती है बल्कि देश के सामने वैकल्पिक नीतियां भी प्रस्तुत कर सकती है। काश, यह उसके लिए संभव हो!
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