प्रणब मुखर्जी : राजनीति के अजातशत्रु

Last Updated 04 Sep 2020 01:45:47 AM IST

भारतीय राजनीति की अपनी एक दशा-दिशा है। साथ ही उसकी विडम्बना और दुर्दशा भी है।


प्रणब मुखर्जी : राजनीति के अजातशत्रु

यह विडम्बना और दुर्दशा देश के आजाद होने से पहले ही शुरू हो गई थी और आजादी के बाद भी जस की तस बनी रही।  आजादी के बाद देश की दुर्दशा का कारण कांग्रेस पार्टी रही जो देश हित की जगह नेहरू परिवार का हित साधने में लगी रही। कांग्रेस पार्टी को नेहरू परिवार के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था। उसका उद्देश्य केवल नेहरू-गांधी परिवार के हितों की रक्षा करना रहा और इस प्रक्रिया में उसने लगातार कांग्रेस पार्टी को अपना बंधुआ मजदूर बना कर रखा जिसके फलस्वरूप कांग्रेस पार्टी के मुखिया ने ऐसे किसी व्यक्ति को आगे नहीं आने दिया या निर्णय की भूमिका में नहीं रखा जिसका उद्देश्य राष्ट्रहित या समाजहित रहा हो। जब भी कोई नेता ऐसा करने की कोशिश करता तो तत्काल ही पार्टी हाईकमान की तरफ से उसके पर कुतर दिए जाते और उसे हाशिए पर फेंक दिया जाता।
यह बाद सही है कि इंदिरा गांधी प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस में लाई। प्रणब मुखर्जी बहुत ही विद्वान, दूरदर्शी तथा राष्ट्रभक्त थे। कांग्रेस ने 1969 में प्रणब मुखर्जी को राज्य सभा में भेजा। इस तरह से प्रणब दा का संसदीय कॅरियर करीब 50 साल का रहा जो 1969 से ही शुरू हुआ था। वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से राज्य सभा के लिए चुने गए। सन 1973 में वे केंद्रीय मंत्रिमंडल के औद्योगिक विकास विभाग राज्य मंत्री के रूप में शामिल हुए। प्रणब दा ने सन 2004 में चुनावी राजनीति में कदम रखा और लोक सभा के सदस्य बने। इंदिरा गांधी की मदद से राजनीति में प्रवेश करने वाले प्रणब दा कांग्रेस का सबसे बड़ा और भरोसेमंद चेहरा भी बने। कांग्रेस के वे उन चंद नेताओं में रहे जिनके शुभचिंतक हरेक पार्टी में रहे तो इसका सबसे बड़ा कारण उनका अजातशत्रु व्यक्तित्व रहा। इसलिए सन 1973 में पहली बार केंद्रीय मंत्री बनने के बाद निरंतर वे हर सरकार, चाहे इंदिरा गांधी की सरकार हो या राजीव गांधी की सरकार, में मंत्री बनते रहे। हरेक बार उनका पोर्टफोलियो काफी महत्त्वपूर्ण भी होता था और मंत्री के रूप में अपनी भूमिकाओं में वे न्याय भी करते रहे। बावजूद इसके हमेशा कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी ने प्रणब मुखर्जी को उनका वास्तविक हक देने में हमेशा आनाकानी की। 1980 में प्रणब दा संसद के उच्च सदन राज्य सभा में कांग्रेस के नेता बने। इसके बाद प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में उनकी धमक कांग्रेस में दिखती थी, ऐसा कहा जाता है, पर राजनीति की अंधी गलियों में कथनी और करनी में बहुत फर्क होता है।

वे 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे और और 1984 में उन्होंने देश के वित्त मंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली। 1984 में ‘यूरोमनी’ पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उन्होंने प्रधानमंत्री नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक  विदेश मंत्री के रूप में भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया।
2004 में जब कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन सरकार के अगुवा के रूप में सरकार बनाई तो कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही अकेले राज्य सभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोक सभा चुनाव जीतने वाले प्रणब दा को लोक सभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मंत्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य एवं उद्योग समेत विभिन्न महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री होने का गौरव भी हासिल है। 2012 में प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और 2017 तक इस पद पर रहे। इस दौरान शुरु आती साल में मनमोहन सिंह और अंतिम वर्षो में नरेन्द्र मोदी के साथ उन्होंने काम किया।
वित्त और अन्य आर्थिक मंत्रालयों में राष्ट्रीय और आन्तरिक रूप से प्रणब दा के कुशल नेतृत्व का लोहा माना गया। वह लंबे समय के लिए देश की आर्थिक नीतियों को बनाने में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। प्रणब दा की अगुवाई में ही भारत ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम किस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया। उन्हें 2008 के दौरान सार्वजनिक मामलों में उनके योगदान के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया।
इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने भी प्रणब दा को हतोत्साहित नहीं किया, लेकिन यह भी सच है कि राजीव गांधी की मृत्यु के बाद प्रणब मुखर्जी को जो अवसर मिलना चाहिए था वह अवसर सोनिया गांधी और उनकी टीम ने नहीं दिया। प्रणब मुखर्जी के कामकाज में देशहित सर्वोपरि था, जिसके कारण सोनिया गांधी ने उनको अवसर नहीं दिया। प्रणब मुखर्जी अपनी भारत केंद्रित विचारधारा के कारण स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब पाते थे, लेकिन उनका दल कांग्रेस था। इसलिए वह कांग्रेस सदस्य रहते हुए, मंत्री रहते हुए अपनी मर्यादा और निष्ठा के कारण कभी सीधे तौर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संपर्क में नहीं रहे। जब 2004 में कांग्रेस सत्ता में आई तब उनके वहां सबसे योग्य व्यक्ति प्रणब मुखर्जी को दरकिनार कर सोनिया गांधी ने अपने रबर स्टाम्प मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया।
प्रणब मुखर्जी 2012 में जब देश के राष्ट्रपति बने तब वह कांग्रेस से मुक्त हुए तथा राष्ट्रपति पद से हटने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के विजयदशमी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर नागपुर गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुआई में बनी सरकार ने भारत रत्न के लिए प्रणब मुखर्जी का नाम भेजकर देश का सर्वश्रेष्ठ सम्मान भी उन्हें दिलाया। प्रणब दा को 26 जनवरी, 2019 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया तथा समय-समय पर प्रधानमंत्री मोदी उनका मार्गदशर्न भी लिया करते थे।
मोदी और प्रणब मुखर्जी की जोड़ी हमेशा चर्चा में रही। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि उन्हें मुखर्जी से पिता जैसा स्नेह मिलता रहा है। आज ऐसा अजातशत्रु व्यक्तित्व अनन्त आकाश में विलीन हो गया है। भारतीय राजनीति को उनकी कमी हमेशा खलेगी।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

आचार्य पवन त्रिपाठी


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