कोविड-19 : दम साधे लड़ते शहरी बाशिंदे
देश के महानगर ग्रोथ सेंटर्स तो बने मगर सिविक सेंटर्स नहीं बन पाए। इस कड़वी सच्चाई को कोरोना वायरस महामारी ने बेनकाब करके भारत में उस विकास की पोल खोल दी जिसकी देश के नेता जोरशोर से दुहाई देकर सत्ता की बंदरबांट कर रहे हैं।
कोविड-19 : दम साधे लड़ते शहरी बाशिंदे |
महानगरों में ही नहीं, प्रदेशों की राजधानियों के बाशिंदे भी महामारी से जान बचाने की लड़ाई दम साधे लड़ रहे हैं। देश में महामारी की 80 फीसद विभीषिका महानगरवासियों ने ही झेली है।
भारत के नगरों की 46 करोड़ से अधिक आबादी में से अधिकतर लोग कच्ची अथवा अधपक्की घिचपिच बस्तियों में एक-दूसरे के कंधे से कंधा रगड़ते रह रहे हैं। महामारी की छूत बड़े पैमाने पर फैलने का मुख्य कारण भी अधिक आबादी की अनियंत्रित एवं असीमित बसावट है। कोई भी बड़ा शहर संकरी गलियों में तीन तरफ एक-दूसरे से सटे माचिसनुमा मकानों की बेतरतीब बस्तियों से अछूता नहीं है। शहरी अनगढ़ बस्तियों के निवासियों की संख्या औसतन 18 करोड़ आंकी गई है। जनसुविधाओं के सरासर अभाव के बावजूद यही लोग अर्थव्यवस्था के इंजन हैं। इन्हीं की बदौलत सकल घरेलू उत्पाद में शहरों का योगदान 63 फीसद है। इनका महत्त्व लॉकडाउन खुलने के बाद रिक्शा से लेकर कारखाने चलाने और सड़क-पुल सहित गगनचुंबी इमारतों को बनाने वाले हाथों की कमी होने पर समझ में आया। मोटे अनुमान के मुताबिक देश की अनुमानित 1.30 अरब आबादी में से अब 34.47 फीसद लोग शहरों में बसे हैं। बेहद सीमित जगह में ज्यादा आबादी बसने के कारण शहरी बस्तियों में निर्माण पर कोई पाबंदी काम नहीं करती। वोटों की लालच में नेता अवैध बसाहटों की सरपरस्ती करते हैं। दिल्ली, मुंबई,चेन्नई हो या पुणो इनमें हुए सीरो सर्वेक्षण में छूत फैलने के सर्वाधिक शिकार सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करने वालों को पाया गया है।
इन शौचालयों का प्रयोग अधिकतर दिहाड़ी मजदूर, फेरीवाले और घरेलू कामगार करते हैं। दिल्ली में अगस्त का सीरो सर्वेक्षण भी सबसे अधिक छूतग्रस्त लोग तंग और घनी बस्तियों वाले क्षेत्रों में जता रहा है। इससे साफ है कि अपेक्षाकृत व्यवस्थित रूप में बसे हवादार और एक-दूसरे से समुचित दूरी पर स्थित रिहायशी इलाकों के लोग कोरोना फ्लू जैसी छूत की महामारी से अधिक सुरक्षित हैं। सवाल मौजूं है कि आखिर, कामगारों की बस्तियों को व्यवस्थित रूप में बसाने में नगर निकाय नाकाम क्यों रहे? क्यों ऐसी बस्तियों के निवासियों के स्वास्थ्य और उनमें आये दिन घटने वाली दुर्घटनाओं पर मोटी रकम खर्चने के बावजूद नागर एजेंसियां उनमें व्यवस्था स्थापित करने पर ध्यान नहीं देतीं? क्या इसके लिए वोट बैंक की राजनीति और खाई-बाड़ी, नशे, देह व्यापार जैसे अवैध कारोबार से पैसा कमाने का लालच ही जिम्मेदार है? जाहिर है कि नेताओं के साथ-साथ सरकारी कर्मचारियों के निहित स्वार्थ भी इन बस्तियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं।
ताज्जुब है कि महामारी के बहाने शहरों की बसाहट में इतनी बड़ी खामी उजागर होने के बावजूद केंद्र अथवा राज्य सरकारों द्वारा एक भी सुधारात्मक उपाय की घोषणा नहीं की गई। इतनी बड़ी संख्या में शहरी आबादी के बावजूद शहरों को चलाने वाले नगर निकाय पाई-पाई को मोहताज हैं। दिल्ली में ही वेतन पाने के लिए नगर निगमों के सफाई कर्मचारियों की हर साल होने वाली हड़ताल इसकी गवाह है। नगर निगमों और दिल्ली सरकार के बीच पैसे के लिए खींचतान की सुर्खियां आम बात हैं। केंद्र सरकार द्वारा अप्रैल से नवम्बर तक भोजन के अधिकार के तहत राशन कार्डधारियों को निर्धारित मात्रा में गेहूं-चावल और एक किलोग्राम दाल मुहैया कराने के ऐलान के बावजूद उनमें से महज 40 फीसद को ही यह सहायता मिल पाने का चिंताजनक तथ्य हाल में उजागर हुआ है। दुनिया के तमाम कुपोषितों में 15 फीसद से ज्यादा आधे पेट खाने वाले लोग हमारे देश में हैं। ऐसे में अनाज का सार्वजनिक वितरण सटीक होना चाहिए जिसमें कुपोषितों को सीधे खुराक हासिल हो जाए। महामारी काल में 60 फीसद पात्रों का सरकारी राशन से वंचित रहना जाहिर है कि देश में कुपोषण तथा बीमारी को और तेजी से फैलाएगा। यूं भी महामारी से बचने को लॉकडाउन के चलते अपनी नौकरी से हाथ धो बैठने वाले करीब दो करोड़ लोग अपना और परिवार का पेट कैसे भरेंगे? बेरोजगारी की दर नौ फीसद के पार होने पर भी शहरों में रोजगार संवर्धन की कोई योजना नहीं आई।
महामारी से बचाव का सबसे कारगर उपाय हाथों को बार-बार साबुन से मल-मल कर धोना बताया गया है। मगर पानी कहां है? देश में 40 करोड़ लोगों को पीने का पानी भी बमुश्किल मिल पाता है। दुनिया में दो अरब से ज्यादा लोग पानी की किल्लत से परेशान हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी पानी की किल्लत वाले क्षेत्रों में महामारी से बचाव के वैकल्पिक उपायों पर जोर दे रहा है। स्वास्थ्य सेवा भी बदहाल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में 1000 लोगों के लिए अस्पताल में मात्र 1.7 बिस्तर उपलब्ध हैं। अपनी इस विकट नाकामी को छुपाने के लिए ही सरकारों द्वारा दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, चेन्नई आदि महानगरों में स्टेडियमों, होटलों व अन्य सार्वजनिक संस्थानों में पलंग लगाकर महामारीग्रस्त लोगों का इलाज किया जा रहा है। सवाल है कि महामारी से स्वास्थ्य सेवा की हालत ऊंट के मुंह में जीरे जैसी होने का भंडा फूटने के बाद इसके विस्तार के लिए क्या केंद्र और राज्य सरकार ठोस और दूरगामी निवेश करेंगी? क्या शहरी अधपक्की बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं पर सरकार ध्यान देगी? सार्वजनिक परिवहन एवं मूलभूत सुविधाओं तथा मोटररहित वाहनों में निवेश से कई देशों में नये रोजगार मिलने, उत्पादकता बढ़ने तथा बीमारियों के इलाज पर खर्च में कमी आने के ठोस परिणाम दिखाई दिए हैं। वायु और ध्वनि प्रदूषण में भी भारी कमी आई है। प्रदूषित वायु में सांस लेने वालों को महामारी का सुचालक माना गया है क्योंकि साफ वायु के बगैर उनके फेफड़े कमजोर हो जाते हैं।
शहरों में मूलभूत ढांचा फौरन सुधारना इसलिए भी जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन की तलवार सिर पर लटक रही है। सुधारात्मक उपायों से प्रदूषण घटने पर जाहिर है कि जलवायु परिवर्तन से आशंकित तबाही की विभीषिका टलेगी। वायु प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए कार्बन उत्सर्जन घटाने संबंधी उपायों पर दुनिया भर में साल 2050 तक 24 खरब डॉलर खर्च आने का अनुमान है। 2050 तक भारत में शहरी आबादी की गांवों से अधिक हो जाने का अनुमान भी संयुक्त राष्ट्र ने जताया है। सो, शहरों में स्थानीय प्रशासन प्रणाली का कायाकल्प करने, बस्तियों को घिचपिच से मुक्त कराने और स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी आदि की व्यवस्था पर खुला खर्च करना अभी से जरूरी है।
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