कुपोषण : कब निकलेंगे इस दुष्चक्र से?
सामाजिक और आर्थिक विकास के पैमाने पर देखें तो भारत की एक विरोधाभासी तस्वीर उभरती है। एक तरफ तो हम दुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देश हैं तो दूसरी तरफ हम कुपोषण के मामले में देखें तो तमाम कोशिशों के बावजूद आंकड़े सोचने के लिए मजबूर करते हैं।
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विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के जाल से नहीं निकल सका है। यही वजह है कि हर साल 1 से 7 सितम्बर तक नेशनल न्यूट्रिशन वीक मनाया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य कुपोषण को लेकर लोगों को जागरूक करना है।
कई रिपोर्ट साफ कहती है कि पर्याप्त पोषण सुनिश्चित करने में देश विफल रहा है। गौरतलब है कि भारत लंबे समय से विश्व में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों का देश बना है। हालांकि कुपोषण के स्तर को कम करने में कुछ प्रगति भी हुई है। गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों का अनुपात वर्ष 2005-06 के 48 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2015-16 में 38.4 प्रतिशत हो गया। इस अवधि में अल्प वजन के शिकार बच्चों का प्रतिशत 42.5 प्रतिशत से घटकर 35.7 प्रतिशत हो गया। साथ ही शिशुओं में रक्ताल्पता (एनीमिया) की स्थिति 69.5 प्रतिशत से घटकर 58.5 प्रतिशत रह गई किंतु इसे अत्यंत सीमित प्रगति ही मान सकते है। भारत के लिए यह चिन्ताजनक बात है कि यह अपने पड़ोसी बांग्लादेश से भी शिशु मृत्युदर में पीछे है। भारत में शिशु मृत्युदर 67 प्रति हजार है, जबकि बांग्लादेश में यह 48 प्रति हजार है। भारत में 5 साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चे 35 प्रतिशत हैं। इनमें भी बिहार और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं।
उसके बाद झारखंड, मेघालय और मध्य प्रदेश का नम्बर है। मध्य प्रदेश में 5 साल से छोटी उम्र के 42 फीसद बच्चे कुपोषित हैं तो बिहार में यह फीसद 48.3 है। यूं कहे कुशल प्रबंधन वाले राज्यों केरल, गोवा, मेघालय, तमिलनाडु व मिजोरम आदि में स्थिति बेहतर है। जिन राज्यों में परिवार नियोजन, जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों आदि की सरकारों द्वारा अनदेखी की जाती है, उन्हीं राज्यों में कुपोषण की समस्या सबसे ज्यादा विकट है। सवाल खड़ा करता है कि जब देश में अपार संसाधन है, देश तरक्की कर रहा है, हम लाइलाज बीमारियों को पराजित कर रहे हैं, ऐसे में भूख का इलाज क्यों नहीं कर पा रहे हैं? वर्तमान में सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और गरीबी विरोधी कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है बावजूद इसके इनसे लाभान्वित होने और लाभान्वित न होने वालों के बीच बहुत बड़ा अंतर है। देश में एक तिहाई से ज्यादा बच्चे अभी भी कुपोषण के शिकार हैं। वंचित तबकों में समस्या काफी गंभीर है। हम खुश हो सकते हैं कि कुपोषण की समस्या में पिछले एक दशक के दौरान कमी आई है, लेकिन हमारी खुशी स्थाई नहीं हो सकती अगर हम समग्र तस्वीर पर नजर डालें। दरअसल, हमारे यहां सामान्य कुपोषण से अलग गंभीर रूप से कुपोषण एक महामारी की तरह बड़ी संख्या में महिलाओं बच्चों का जीवन छीन रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए हमने अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। या जिन उपायों को हम ठोस मानकर आगे लेकर आए हैं वे इससे निपटने में कारगर नहीं हैं। हम अभी तक नीति आयोग द्वारा गंभीर रूप से कुपोषण पर समुदाय आधारित कुपोषण प्रबंधन की नीति तय नहीं कर पाए हैं। इसका साफ मतलब यह है कि तमाम योजनाओं के ऐलान और बहुत सारे वादों के बावजूद अगर देश में भूख व कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या ये है तो योजनाओं को लागू करने में कहीं-न-कहीं भारी गड़बड़ियां और अनियमितताएं हैं।
फिलहाल जरूरत इस बात है कि भुखमरी से लड़ाई में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और वैश्विक संगठन अपने-अपने कार्यक्रमों को बेहतर स्वरूप और अधिक उत्तरदायित्व के साथ लागू करें। सवाल है, भारत में इस भुखमरी का कारण क्या है? भारत में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की। कमी है तो केवल प्राथमिकता की। भारत में कुपोषण और खाद्य सुरक्षा को लेकर कई योजनाएं चलाई जाती रही हैं, लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए ये नाकाफी तो थी ही। साथ ही व्यवस्थागत, प्रक्रियात्मक विसंगतियों और भ्रष्टाचार की वजह से भी ये तकरीबन बेअसर साबित हुई हैं। नि:संदेह यदि बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं तो एक निष्कर्ष यह भी है कि उनकी माताओं का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं हैं। इसलिए कुपोषण से निपटने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच सभी योजनाओं में समन्वय बेहद जरूरी है। उम्मीद कर सकते हैं कि कुपोषण से लड़ाई में उतरी मोदी सरकार अपने लक्ष्य को समय पर हासिल कर लेगी। सरकार के पोषण अभियान से कुपोषण मुक्त भारत का सपना साकार होगा।
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