बिहार-चुनाव : इस बार जोड़तोड़ मुश्किल

Last Updated 28 Aug 2020 01:10:40 AM IST

बिहार विधानसभा चुनाव तय समय पर हुए तो अगले दो महीने चुनावी घमासान के होंगे और इसी साल नवम्बर में नई सरकार का गठन होगा।


बिहार-चुनाव : इस बार जोड़तोड़ मुश्किल

हालांकि बिहार की स्थिति भयावह है। लोगों में गहरी उदासी और गुस्सा है। बाढ़ तो खैर यहां लगभग हर वर्ष आती रही है, लेकिन कोरोना के कहर ने पहले से ही बेहाल सूबे को इस वर्ष बदहाल कर दिया है। स्वास्थ्य सेवाओं की पोल- पट्टी खुल चुकी है। महामारी बढ़ती ही जा रही है। सरकारी इंतजाम कुछ नहीं हैं। लोग अस्पताल जाने से डर रहे हैं। सब कुछ रामभरोसे है। तीन महीने में तीन स्वास्थ्य सचिवों के तबादले के बाद भी विभाग खुद बुरी तरह बीमार है। हां, मुख्य सरकारी दल जेडीयू चुनाव के लिए छटपटा रहा है। उसे आशंका है कि कहीं भाजपा ऐन मौके पर धोखा न दे दे। महामारी के चलते यदि चुनाव रुक गए तो राष्ट्रपति शासन लगेगा और मुख्यमंत्री की कुर्सी जाती रहेगी। राष्ट्रपति-राज अफसरों का शासन होगा और इसमें भाजपा की चलेगी। इससे जेडीयू की राजनीतिक मोल-भाव (बार्गेनिंग) क्षमता भी कमजोर हो जाएगी। इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक है।

भाजपा बार-बार अपनी सहयोगी जेडीयू को आश्वस्त कर रही है कि वह चुनाव उसके साथ ही लड़ेगी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बिहार के आसन्न चुनाव को लेकर पार्टी महासचिवों के साथ एक बैठक के बीच जेडीयू के साथ अपनी एकजुटता को दोहराया है। लेकिन इस बात को बार-बार दोहराने से ही यह निष्कर्ष निकलता है कि इस विषय को लेकर दोनों के बीच कहीं कुछ चक्कर जरूर है। बार-बार एकजुटता की दुहाई आखिर क्यों दी जा रही है। जेडीयू के पास भाजपा पर विश्वास करने के सिवा कोई चारा नहीं है। लेकिन, वह भय से घिरी जरूर है। भय कई रूपों में देखा जा सकता है। जेडीयू का भय स्वाभाविक है। कोई बीस-पचीस  साल पहले के उत्तर प्रदेश की राजनीति का स्मरण कीजिए। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद जब उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बर्खास्त हुई और 1993 में चुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने साथ मिल कर चुनाव लड़े और भाजपा को पराजित कर दिया। मुलायम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। इस सरकार को केवल दो साल बाद भाजपा ने अपनी व्यूहरचना से गिरा दिया। बसपा को उसने बाहर से सपोर्ट किया। मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी। कुछ समय बाद मायावती की सरकार से सपोर्ट वापस ले लिया गया। अब भाजपा के लिए रास्ता प्रशस्त था। उस वक्त  अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी कुटिल रणनीति का खुलासा करते हुए कहा था-हमने कांटे (मायावती) से कांटा (मुलायम) निकाला और फिर दोनों कांटों को फेंक दिया। भाजपा बिहार में वही राजनीति खेलेगी। यहां लालू को नीतीश द्वारा बाहर करना था, कर दिया। लेकिन नीतीश रूपी कांटा अभी भाजपा के हाथ में है और वह उसे खटक रहा है। उसे कब फेंकना है, उसे तय करना है।
2015 में जैसे ही गैर-भाजपा दलों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की, जनता ने उस पर मोहर लगाई। यह बिहार की जनता का स्वाभाविक मिजाज है। उसकी चेतना दकियानूसी नहीं है। उसने हमेशा कट्टरता की जगह वैचारिक उदारता को पसंद किया है। लेकिन गलतियां नेताओं से हुई। इनमें लालू और नीतीश, दोनों शामिल हैं। दोनों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी। जनता की उम्मीदों से खिलवाड़ किया। न मिनिमम कॉमन प्रोग्राम बना, न शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे आधारभूत मसलों पर ध्यान दिया गया। नीतीश कुमार की गलती बड़ी थी। इसलिए कि पिछले पंद्रह वर्षो से वह नेतृत्व कर रहे हैं। उन्हें भाजपा के साथ जाने के लिए जनता ने वोट नहीं दिया था। वह राजनीति में सिद्धांतों की बात करते हैं और इस विषयक गांधी-वाणी को अपने राजपाट में जगह-जगह उत्कीर्ण भी करवाया हुआ है। लेकिन उन्होंने कभी क्षण भर रु क कर यह समझने की कोशिश नहीं की कि वह कर क्या रहे हैं। इससे बड़ी सिद्धांतहीनता का उदाहरण आजाद भारत में कभी नहीं बना कि विपरीत विचारधारा के साथ अचानक कोई बड़ा नेता इस तरह पाला बदल ले। वह इतने अराजनैतिक लोगों से घिरे हैं कि उन्हें अपनी गलतियों का एहसास भी नहीं होता।
लेकिन यह तीन साल पुरानी बात हो गई। आज सवाल है कि बिहार में क्या होगा? सामान्य तौर पर किसी को महसूस हो सकता है कि भाजपा गठबंधन को नीतीश के रहते कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन राजनीति केवल गणितीय खेल नहीं है। वोट किसी की मुट्ठी में नहीं है। 2015 का चुनाव केवल यही संकेत करता है कि बिहार की माटी भाजपा-नीत सांप्रदायिक हिंदुत्व के पक्ष में नहीं है। यह समाजवादी आंदोलनों की भूमि रही है। सहजानंद सरस्वती और त्रिवेणी संघ के नेतृत्व में यहां किसान आंदोलनों की शुरु आत हुई। 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और 1939 में कम्युनिस्ट पार्टी यहां स्थापित हुई। भारत में जमींदारी उन्मूलन कानून पास करने वाला पहला प्रांत बना। यहां तरह-तरह के राजनीतिक प्रयोग भी हुए। 1970 के आसपास जगदेव प्रसाद ने सोशलिस्ट राजनीति में द्विजवाद विरोध को नत्थी किया। कर्पूरी ठाकुर ने अपनी मृत्यु के पूर्व, 1980 के दशक में,  अपनी समाजवादी राजनीति को अम्बेडकरवाद से जोड़ा। आखिरी सात साल कर्पूरी ठाकुर की राजनीति के सबसे सुनहले दिन थे। वह एक वैचारिक करवट ले रहे थे। नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से प्रभावित पूरे मध्य बिहार के सामंतों ने कर्पूरी ठाकुर को इसके लिए जवाबदेह बतलाया था, तो इसके पर्याप्त कारण थे। उस बिहार में भाजपा की राजनीति यदि विकसित होती है, तब यह खतरनाक संकेत है। नीतीश कुमार को भी सोचना चाहिए कि वह अपनी समाजवादी विरासत को जड़-मूल से काटने के लिए शत्रु ताकतों की तरफ से प्रयुक्त हो रहे हैं। वह उस कुल्हाड़े की बेंत बन रहे हैं, जो उनकी पूरी विरासत को काटने जा रहा है। उन्हें अपनी भूमिका समझनी चाहिए।
जातिवादी राजनीति के दिन लद चुके हैं। प्रतिपक्ष को एक ऐसी राजनीति की प्रस्तावना करनी चाहिए जिससे सभी तबकों के युवा, किसान-मजदूर-दस्तकार और मेहनतकश लोग  अपने सपनों को साझा कर सकें। महाभारत के पौराणिक युद्ध में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन जैसे तमाम महाबली एक तरफ थे, अक्षौहिणी सेना भी उसी तरफ थी। लेकिन जीत उनकी नहीं हुई। भीष्म, कर्ण, द्रोण सब गतश्री हुए। जीत उनकी हुई जो न्याय के लिए लड़ रहे थे। कृष्ण का उद्घोष था,-‘यतो धर्म: ततो जय:’। जहां धर्म, यानी विचार होता है, जीत उनकी ही होती है। प्रतिपक्ष यदि जातिवादी जोड़तोड़ की जगह विचार और कार्यक्रम के साथ एकजुट हो कर उतरा, तो यकीनन उसकी जीत होगी। बहरहाल, बिहार की राजनीति भारत की राजनीति को एक बार फिर से रास्ता दिखा सकती है।

प्रेमकुमार मणि


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