नई शिक्षा नीति : अपेक्षाओं के अनुरूप
बहु प्रतिक्षित और बहु-चर्चित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। देश की शिक्षा को लेकर नीति क्या हो, आखिरी बार यह 1986 में तय किया गया था।
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हालांकि 1992 में इसमें छिटपुट संशोधन किए गए थे। वर्ष 2014 की चुनावी रैलियों में तब बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा नीति में बदलाव की जरूरतों को मुद्दा बनाया था।
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा लागू किए गए शिक्षा का अधिकार कानून के प्रावधानों की मोदी ने चुनावी रैलियों के दौरान मुखर रूप से आलोचना की थी। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कुछ अहम फैसले भी किए थे जिनमें स्कूलों को मान्यता देने की अहर्ता में छात्रों के सीखने के परिणाम (लर्निग आउटकम) को भी शामिल किया गया था जबकि आरटीई इसके लिए मुख्य रूप से निवेश आधारित पहलुओं तक ही सीमित है। आश्चर्य की बात है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने न केवल आरटीई को मूल रूप में जारी रखा है, बल्कि एनईपी ड्राफ्ट प्रपोजल में इसके पुनर्निरीक्षण की सलाह की अनदेखी करते हुए इसे 12वीं तक विस्तारित करने का फैसला किया है।
सरकार बनने के बाद नई शिक्षा नीति तैयार करने की जिम्मेदारी पहले स्मृति ईरानी और बाद में प्रकाश जावड़ेकर को दी गई। हालांकि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू कराने का श्रेय वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखिरयाल ‘निशंक’ को प्राप्त हुआ। इस शिक्षा नीति को भविष्य की नीति के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। कुछ हद तक यह ठीक भी है। प्रस्तुत नई शिक्षा नीति में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं, जिनकी प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी। ऐसे प्रावधानों की सूची में सबसे ऊपर आता है सेपरेशन ऑफ फंक्शंस या सेपरेशन ऑफ पॉवर।
देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से एक व्यक्ति अथवा विभाग केंद्रित व्यवस्था है। इसमें सरकार (शिक्षा विभाग) ही स्कूलों को वित्त प्रदान करती है, उन्हें नियमित करती है और उनका संचालन भी करती है। ऐसा होना किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिए हानिकारक है। इस व्यवस्था में पक्षपात अवश्यंभावी हो जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में इसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ऐसे तमाम नियम और कानून हैं, जो निजी स्कूलों के प्रति कड़ा रु ख अपनाते हैं, उन्हें दंडित करते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों के प्रति उनका रवैया सहयोगात्मक रहता है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में रेग्युलेटर और सर्विस प्रोवाइडर के इस घालमेल को दूर करने का प्रयास करते हुए इन्हें अलग-अलग करने की बात की गई है। इसके लिए स्टेट्स स्कूल स्टैंर्डड अथॉरिटी (एसएसएसए) बनाने का प्रावधान किया गया है। हालांकि कुछ चीजें अभी अस्पष्ट हैं जैसे कि रेग्युलेटर के नाम पर सरकारी विभाग ही बना दिया जाएगा या टेलीकम्यूनिकेशन और एविएशन सेक्टर की तर्ज पर एक स्वायत्त संस्था यह जिम्मेदारी निभाएगी।
शिक्षा नीति का दूसरा अहम बिंदु इसका स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने की बात करना है। छात्रों के स्कूल में दाखिल होने की दर 98% के वैश्विक स्वीकृत मानकों के आसपास ही है, लेकिन नेशनल अचीवमेंट सर्वे (एनएएस) और अन्य सर्वेक्षण पुष्टि करते हैं कि 8वीं कक्षा का छात्र तीसरी कक्षा के स्तर के गणित के प्रश्नों को हल करने में सक्षम नहीं है। पांचवीं कक्षा का छात्र तीसरी कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक को पढ़ने में समर्थ नहीं है। देर से ही सही सरकार ने कक्षाओं के आधार पर सीखने के स्तर को निर्धारित करने का फैसला किया है।
हालांकि शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने का फार्मूला क्या होगा? अध्यापकों की अनुपस्थिति कैसे सुनिश्चित कराई जा सकेगी (यूपी सहित अन्य राज्यों में किए गए अध्ययनों के मुताबिक चौथाई शिक्षक कक्षा में अनुपस्थित रहते हैं)? छात्रों को पसंद के स्कूलों में पढ़ने की इच्छा का सम्मान कब होगा? महंगे प्राइवेट स्कूलों की समस्या का समाधान कैसे और कब होगा? ऐसे कई प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं और जिनका जवाब सरकार को तलाशना ही होगा।
निजी स्कूलों की लंबे समय से मांग रही है कि शिक्षण-प्रशिक्षण के तौर तरीकों को अपनाने, पाठ्य पुस्तकों को चुनने, फीस वसूलने आदि की उनकी स्वायत्तता के अधिकारों का सम्मान किया जाए। देश के कुल गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों का लगभग 85% हिस्सा कम शुल्क वाले बजट स्कूलों का है। ये स्कूल रिहायशी इलाकों के पड़ोस में स्थित होते हैं और सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र खर्च होने वाली धनराशि से कम खर्च में शिक्षा प्रदान करने का काम करते हैं। ऐसे स्कूलों की लंबे समय से मांग रही है कि शिक्षा से संबंधित नीतियों को बनाने के दौरान उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए अथवा उनकी राय भी ली जाए।
एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा है शिक्षा के क्षेत्र में फंडिंग के तरीकों में परिवर्तन का। भविष्य की शिक्षा नीति बनाते समय इस बिंदु की अनदेखी नहीं की जा सकती। कोरोना महामारी ने इस विषय पर सोचने का अवसर दिया है। वर्तमान में आरटीई के तहत गरीब छात्रों को निजी स्कूलों में शिक्षा सुनिश्चित कराने के बदले में सरकार स्कूलों को प्रतिपूर्ति करती है। सहायताप्राप्त स्कूलों को भी फंड करती है और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराती है। लेकिन यह तरीका कारगर साबित नहीं हुआ है और गरीब छात्रों के साथ भेदभाव सहित स्कूलों की मनमानी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
सरकार को फंडिंग के अपने तरीके को बदल कर स्कूलों की बजाय छात्रों को सीधे फंड करने की नीति पर काम करने की आवश्यकता है। इसके तहत छात्रों को वाउचर के माध्यम से फंड किया जा सकता है, जिसे छात्र अपनी पसंद के स्कूल में जमाकर दाखिला ले सकते हैं और पढ़ाई कर सकते हैं। इससे स्कूलों के बीच ऐसे छात्रों को आकर्षित करने को लेकर प्रतिस्पर्धा होगी, गुणवत्ता में सुधार होगा और स्कूलों की महंगी फीस की समस्या का समाधान हो सकेगा। यह तरीका स्कूलों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप किए बगैर, मुनाफाखोरी की चिंता किए बगैर फीस में कमी सहित कई सारी समस्याओं का समाधान निकालने में कारगर होगा।
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