नई शिक्षा नीति : परीक्षण अभी बाकी

Last Updated 07 Aug 2020 12:25:04 AM IST

शिक्षा नीति पर दिए गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य कि नई शिक्षा नीति रोजगार देने वाली साबित होगी की परख भविष्य में ही हो सकेगी।


नई शिक्षा नीति : परीक्षण अभी बाकी

क्रियान्वयन हमारी नीतियों का सबसे कमजोर पक्ष रहा है और आर्थिक मजबूरी तथा संसाधन का काफी हद तक दुरुपयोग हमें हमारे लक्ष्य से हरदम भटकाता रहा है। 1966 में दी गई कोठारी आयोग के शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के 6% तक खर्च करने की संस्तुति को इतने दिन बाद हमने सैद्धांतिक रूप में इस नीति के माध्यम से स्वीकार किया है। आयोग की दूसरी महत्त्वपूर्ण संस्तुति कि समान शिक्षा प्रणाली को अपनाया जाए, अभी तक हमने सैद्धांतिक रूप में भी स्वीकार नहीं की है। 6% खर्च करने की योजना को मूर्त रूप देना शेष है। अपनी शैक्षिक योजनाओं को आंशिक सफलता से लागू करने का हमारा इतिहास हमारे संकल्प की हवा निकाल देता है।

शिक्षा के अधिकार कानून को पूरी तरह लागू न करा पाना, कम विकसित राज्यों में उच्च शिक्षा का सकल नामांकन अनुपात के राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे होना, समावेशी शिक्षा की संकल्पना के उलट शिक्षा का निजीकरण की ओर बढ़ना, 10+2+3 प्रारूप को लागू करते हुए +2 की शिक्षा को कमजोर कर डालना, अध्यापक शिक्षा की पूर्ति का 90% से अधिक निजी संस्थानों से पूरा करना, अभियांत्रिकी की शिक्षा को निजीकरण के नाम पर गर्त में धकेल देना आदि जैसे उदाहारण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि हमें गंभीरता से अपनी योजनाओं और इनके क्रियान्वयन तथा इनके सतत मूल्यांकन पर कार्य करना ही होगा।

वर्तमान शिक्षा नीति व्यापक है और शिक्षा की वर्तमान स्थिति के आकलन के क्रम में ईमानदार भी। भारतीयता के पुट को समाहित करते हुए शिक्षा को अंतरराष्ट्रीय आकार देने की कोशिश की गई है। शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव और उनकी पुरानी गरिमा को लौटा सकने का  संकल्प भी मुखरित है। विद्यालयी शिक्षा, उच्च शिक्षा, अध्यापक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, दूर शिक्षा आदि के विकास की योजना विस्तार से वर्णित है, और इसमें कोई संदेह नहीं कि हम क्रियान्वयन की चुनौतियों को स्वीकार कर अपनी संपूर्ण शिक्षा को इस नीति की मदद से धार दे सकते हैं। विद्यालयी शिक्षा की संरचना को 10+2 से 5+3+3+4 में परिवर्तित करना मनोविज्ञान की विकास की अवस्था के अनुरूप है। विद्यालयी पूर्व तीन वर्ष को पहली एवं दूसरी कक्षा के साथ मिलाकर पांच वर्ष की शुरु आती शिक्षा; फिर तीन वर्ष की तीसरी से पांचवी; तीन वर्ष की छठी से आठवी  तथा माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक को मिलाकर चार वर्षो की नौवी से बारहवी की शिक्षा की योजना शैक्षिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अनुकूल है। इस क्रम में हमें इस संपूर्ण विद्यालयी शिक्षा को शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे में लाकर अनिवार्य किन्तु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की चुनौती का सामना करना चाहिए। बहुभाषावाद एवं सांकेतिक भाषा का विकास, नीति के संकल्प में मुखर हैं। नीति का यह मानना कि भाषा विकास की दृष्टि से 2-8 वर्ष की मानव अवस्था महत्त्वपूर्ण है। सही सोच है, किन्तु भाषा की क्षेत्रीय राजनीति की वजह से हमें एक राष्ट्रभाषा की स्वीकृति मिलेगी-संदेह है। यह दुखद भी है और राष्ट्रीय एवं भावात्मक विकास की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण भी। शिक्षक को उचित स्थान देने का संकल्प प्रबल है, परन्तु नियोजित, पारा आदि जैसे शिक्षकों के बूते शिक्षा की सूरत बदलने की कोशिश करने वाला राष्ट्र शिक्षण व्यवसाय एवं शिक्षक के वृतिक विकास के साथ न्याय कर पाएगा? संदेह है। नीति ने विद्यालयी शिक्षा में ड्रॉपआउट एवं इसको दूर करने के उपाय पर व्यापक चर्चा की है, जरूरत अध्यापक शिक्षा में हो रहे ड्रॉपआउट के अध्ययन की भी है। चार-वर्षीय बी.एड पाठयक्रम की स्वीकार्यता में शिक्षाविद के एक वर्ग को संदेह है।
इस नीति के अनुसार उच्च शिक्षा में सबसे बड़ा सुधार उच्च शिक्षा की संबद्धता की प्रकृति को धीरे-धीरे समेटने का है। विश्व के विकसित राष्ट्र संबद्ध महाविद्यालय एवं संबद्ध विश्वविद्यालय का सहारा नहीं लेते और गुणवत्ता की दृष्टि से इसे सबसे निम्न दरजे का संस्थान माना जाता है। एकल विश्वविद्यालय एवं स्वायत्त महाविद्यालय के साथ उच्च शिक्षा की योजना निश्चय ही इसकी गुणवत्ता को धनात्मक रूप से प्रभावित करेगी। उच्च शिक्षा के सकल नामांकन अनुपात को 50% तक ले जाने के क्रम में हमें क्षेत्रीय विषमता को दूर करना होगा और इसके लिए उच्च गुणवत्ता वाले महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय की स्थापना प्राथमिकता के आधार पर अविकसित प्रदेशों एवं जिलों में करनी होगी। अवकाशप्राप्त शिक्षकों को मानव संपदा के रूप में अपनाने की नीति की योजना सराहनीय है और उच्च शिक्षा में यह कदम पहले औपचारिक और फिर बाद में अनौपचारिक शिक्षा के रूप में क्रान्तिकारी सिद्ध होने वाला है। विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने एवं निजी भागीदारी को बढ़ाने के साथ यह सुनिश्चित करना कठिन प्रतीत होता है कि शिक्षा के बाजारीकरण एवं व्यावसायिकरण को क्या हम रोक पाएंगे। उच्च शिक्षा में हर स्तर पर प्रमाणपत्र देने एवं अधूरी शिक्षा को फिर से पूरी कर सकने का विकल्प अच्छा कदम है।
भारत के ज्ञान एवं पुरानी शिक्षा पद्धति को अपनाने का संकल्प नई नीति में समाहित है, किन्तु हमें राष्ट्र के चारित्रिक विकास पर कठोरता से हमारी गुरुकुल प्रणाली के अनुशासन के साथ काम करना होगा। फैला भ्रष्टाचार एवं नैतिकता का हृास हमारी बड़ी सामाजिक एवं राष्ट्रीय चुनौती हैं, और शिक्षा के माध्यम से मूल्य संचरण कर हमें राष्ट्र के नैतिक एवं चारित्रिक विकास का प्रयास भी करना ही होगा। सभी प्रकार के संसाधनों के उचित एवं उपयुक्त विकास के लिए यह जरूरी है। आज अर्थ के लिए शिक्षा और शिक्षा के लिए अर्थ के बीच सामंजस्य बैठाने की जरूरत है। हम विदेशी और निजी विश्वविद्यालयों के भरोसे अपनी उच्च शिक्षा को नहीं छोड़ सकते। ऐसी व्यवस्था समावेशी शिक्षा, कल्याणकारी राज्य, आरक्षण आदि के हमारे मूल समाजोपयोगी सिद्धांतों के रास्ते में रुकावट की तरह होगी। सामाजिक विषमता की खाई को पाटने की हमारी मूल भावना की राह में विदेशी एवं निजी भागीदारी को देश का एक वर्ग उसी तरह घातक मानता है, जैसा वह सरकारी संपत्तियों के विनिमेश को मानता है। शिक्षा के निजीकरण, व्यावसायीकरण एवं विदेशीकरण पर हमें लगातार नजर रखनी चाहिए ताकि भविष्य में चीनी वस्तुओं की तरह हमें खास शिक्षा को त्यागना न पड़े।

डॉ. ललित कुमार


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