विश्लेषण : चुनौतियां हैं बरकरार

Last Updated 05 Aug 2020 12:44:41 AM IST

पिछले साल 1 अगस्त को देश में तीन तलाक के विरुद्ध कानून पारित किया गया था। भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम महिला (वैवाहिक अधिकारों में संरक्षण), 2019 कानून की वार्षिक तिथि को मुस्लिम महिला अधिकार दिवस के रूप मे मनाया।


विश्लेषण : चुनौतियां हैं बरकरार

सोशल मीडिया पर थैंक्समोदीभाईजान प्रचलित हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे देश में जुबानी एक-तरफा तलाक या तीन तलाक के खिलाफ कानून की सख्त जरूरत थी। सुप्रीम कोर्ट के 2017 के फैसले के बावजूद तीन तलाक की कई घटनाएं सामने या रही थी। ऐसे में मुस्लिम महिला को संरक्षण मिलना लाजमी ही। साथ ही यह भी कहना होगा की तीन तलाक के अलावा भी मुस्लिम महिला कई अन्य समस्याओं से जूझ रही हैं।
सरकार का रुख गरीबी, रोजगार, शिक्षा, सामाजिक न्याय एवं समान नागरिक अधिकारों के प्रति भी उतना ही जरूरी है जितना कि तीन तलाक पर। व्यापक मुस्लिम समाज के साथ भेदभाव और कटुता के चलते मुस्लिम महिला के साथ न्याय नहीं हो सकता। वैसे किसी भी समाज में महिला के अधिकारों की बात उठाना आसान नहीं होता। मानव प्रजाति के इतिहास में पुरुष प्राधान्य एवं औरत के शोषण का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। दुनिया भर के देशों में पितृसत्ता का वर्चस्व आधुनिक युग में भी बरकरार है। औरतों के हक में नीति नियम एवं कानून बनाना हमेशा मुश्किल होता है। विकसित देशों में भी औरतों को वोट देने का अधिकार या संपत्ति का अधिकार मिलने में बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। फिर हमारे देश में तो पितृसत्तात्मक मानसिकता के साथ-साथ हर चीज राजनीति से प्रेरित होती है। औरतों के हक में कानून बनाने के रास्ते में कई राजनीतिक अवरोध खड़े कर दिए जाते हैं।

1955 में भारतीय संसद को हिन्दू मैरिज कानून बनाते समय काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। कुछ कट्टर सोच वाले धार्मिंक गुरु  और राजनीतिक संगठनों को हिन्दू विवाह मामलों में कानूनी सुधार मंजूर नहीं था। वर्तमान समय मे भाजपा, कांग्रेस और अन्य पक्षों के राजनीतिक हित से बढ़ कर स्त्री अधिकार और स्त्री स्वातंत्रय की बात करना मुश्किल है। फिर हमारे देश में मुस्लिम औरतों के अधिकारों से जुड़ी और भी पेचीदगियां हैं। देश का संविधान सभी को समान अधिकार और धर्म स्वांतंत्र का अधिकार देता हैं, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय और खासकर मुस्लिम समुदाय शरीयत और पारिवारिक मामलों को लेकर हमेशा संवेदनशील रहा है, जिसके चलते मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार नहीं हो पाया। 1986 का शाहबानो प्रकरण सभी को याद है। भारत में सेकुलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमेशा से राजनीति होती रही है। कांग्रेस के सेकुलरिज्म की कीमत मुस्लिम समाज और खासकर मुस्लिम औरतें चुकाती रही हैं। कांग्रेस ने हमेशा पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे पुरु षवादी कट्टर संगठनों का साथ दिया है। तीन तलाक या एक से ज्यादा शादियां या निकाह हलाला जैसी कुरीतियों पर कभी कानूनी रोक नहीं लग पाई, लेकिन शिक्षा और जानकारी के बढ़ने से 2016 में कई मुस्लिम औरतों ने वो कमाल कर दिखाया जो 1986 में नामुमकिन था।
औरतों ने अपने कुरानी अधिकार और सांविधानिक अधिकारों की लोकतांत्रिक लड़ाई छेड़ दी। सुप्रीम कोर्ट ने जुबानी एक-तरफा तलाक या तीन तलाक के खिलाफ औरतों के हक में फैसला दिया। केंद्र की भाजपा सरकार ने इस फैसले को सही अर्थ में लागू करने के लिए पिछले साल तीन तलाक कानून पारित किया। सरकार के इस कदम का मुस्लिम समाज ने खुलकर विरोध किया। गौरतलब है कि 2014 मे भाजपा के सत्ता में आने के बाद कई घटनाएं घटी, जिससे मुस्लिम नागरिकों को असुरक्षा महसूस होने लगी। गौरक्षा के नाम पर हिंसा, लव-जिहाद के नाम पर पुलिस दमन, बार-बार पाकिस्तान जाने को कहा जाना,सीएए जैसे कानून, एनआरसी-एनपीआर इत्यादि ने मुस्लिम समाज मे काफी डर पैदा किया है। सरकार की नीतियों और नियत पर काफी सवाल खड़े हुए हैं। इन नीतियों के विरोध में जमकर प्रदर्शन हुए जहां औरतों ने अगवाई की।
देशभर में मुस्लिम औरतों ने छात्रों, युवा और कर्मशीलों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर न्याय और समानता के लिए कई प्रदर्शन किए। तीन तलाक भी मानव अधिकार और सामाजिक न्याय से जुड़ा प्रश्न है। उसे अलग-थलग देखना मजाक होगा। जब नागरिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाए तब औरत के दुख और तीन तलाक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को भी नहीं हो सकती। सरकार को भी समझना होगा कि मुस्लिम औरत व्यापक मुस्लिम समाज का हिस्सा है। उसे अपने समाज से काटकर अपने अधिकार नहीं दिलवाए जा सकते। और फिर सरकार का सांविधानिक दायित्व सभी नागरिकों के लिए है, फिर वे मुस्लिम हो या हिन्दू या ईसाई।
तीन तलाक कानून में कई प्रावधान हैं, जिनका जिक्र जरूरी है। पति को तीन साल की सजा हो सकती है। इस कानून के विरोध में कुछ लोगों ने कहा कि यह कानून मुस्लिम मदरे से जेल भरने की साजिश है, लेकिन इन सबके बावजूद यह कानून असरदार साबित हुआ है। तीन तलाक का प्रमाण कम हुआ है। जो काम पुरुषों ने अपने आप नहीं करना चाहा, वो काम कानून  और सजा के डर ने कर दिखाया। अच्छा होता अगर मुस्लिम उलेमा खुद ही स्वेच्छा से सुधार कर लेते। इस तरह औरतों को अपने कुरानी हक मिल सकते थे। इससे पहले देश में दहेज विरोध कानून एवं घरेलू हिंसा कानून भी बड़े असरदार रहे हैं। कानूनी संरक्षण औरतों का संविधानिक अधिकार है।
प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 में प्रतिज्ञा लेते व्यक्त सबका विश्वास हासिल करने की बात कही थी। इस बात को हकीकत में तब्दील करने के लिए प्रयास होना जरूरी है। तीन तलाक कानून और साधारण जानकारी की बढ़ोतरी से देश में जुबानी एक-तरफा तलाक पर रोक जरूर लगी है। कैबिनेट ने तीन तलाक कानून पर जो पहल की; उसी दृढ़ता से उसे मुस्लिम नागरिकों की लोकतंत्र में भागीदारी के लिए भी पहल करनी होगी।

जकिया सोमन


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