मीडिया : सुशांत की मौत और मीडिया

Last Updated 02 Aug 2020 12:11:41 AM IST

अब बॉलीवुड के युवा आइकन सुशांत की ‘आत्महत्या’/‘हत्या’ की कहानी कोरोनाकाल में भी मीडिया की सबसे सुपर हिट कहानी बन चली है। कारण इसका ‘हाई प्रोफाइल’ होना है।


मीडिया : सुशांत की मौत और मीडिया

अपना मीडिया हमेशा हाई प्रोफाइल केसों को ही लिफ्ट देता है क्योंकि उसी में उसको हाई प्रोफाइल समाज को चैलेंज करने, उसकी पोल खोलकर उसके अहं को तोड़ने का अवसर मिलता है। और ऐसी कहानियां बिकती भी इसीलिए हैं क्योंकि आम टीवी दर्शक ऐसे ही ‘सेलीब्रिटीज’ की पोल खुलने का आनंद लेता है। उसे देख आम दर्शक को एक प्रकार की ‘तोष’ का अनुभव होता है कि ये जो ‘सेलीब्रिटीज’ की ‘ग्लैमर’ की दुनिया है, वह उसकी दुनिया से भी कहीं अधिक गंदी है।  हर बड़े की अपराध कहानी में यही ‘तोष रस’ बरसता है कि चलो ये जो हाथ नहीं धरने देता था, आज ये भी गिरा, ये भी नंगा हुआ।
अपना मीडिया इन्हीं बड़ों की अपराध कथाओं और रहस्य कथाओं से बरसने वाले ‘भावनात्मक न्याय’ पर पलता और चलता है। फिर अपना मीडिया, उसमें काम करने वाले एंकर-रिपोर्टरों में से बहुत से स्वयं अपने को भी तो ‘हाई प्रोफाइल’ की तरह पेश करते हैं। फिर, ‘खबर मीडिया’ अपनी खबरनबीसी की ताकत के कारण ‘इंटरटेनमेंट मीडिया’ पर भारी पड़ता ही है। यही नहीं, ‘खबर मीडिया’ का भी अपना ‘अहंकार’ होता है, जो ऐसे केसों के दौरान बाहर निकल पड़ता है और जम के बिकता भी है। शायद इसीलिए मीडिया ऐसे ‘हाई प्रोफाइल’ केसों को जम के बजाता है और अपने अधिकाधिक दर्शक बनाता है। यों भी कोरोना के डर से घरों में प्राय: बंद दर्शकों के लिए ऐसी ‘सुसाइड/र्मर्डर मिस्ट्री’ से बेहतर और क्या हो सकता है जो अधिकतम दर्शक जुटा सकती है और लॉकडाउन के कारण आई मंदी की चपेट में आए मीडिया को फिर से विज्ञापन दिला सकती है। शायद यही कारण है कि अक्सर ऐसी ‘हाई प्रोफाइल’ अपराध कथाएं मीडिया को मोहती हैं।

यहां न्याय की ‘चिंता’ उतनी नहीं होती जितनी कि दर्शकों के सामने मीडिया के ‘न्याय प्रिय’ और ‘न्याय दिलाने वाला’ दिखने की चिंता। कालांतर में किसी को ‘न्याय’ मिल गया तो हल्ला मचाने वाले मीडिया के पौ बारह और न मिला तो कह देंगे कि क्या करें हमने तो दम लगाया था लेकिन हम जज नहीं हैं..। यही वो मौका होता है जब चैनल या तो हिट हो जाते हैं या पिट जाते हैं क्योंकि ऐसी अपराध कथाएं तलवार की धार की तरह होती हैं। अगर आपका निशाना सटीक बैठा तो आप टॉप पर नहीं तो गए काम से! जैसिका लाल की कहानी भी ऐसी ही ‘हाई प्रोफाइल र्मडर मिस्ट्री’ थी, जिसे उन दिनों एक चैनल ने सबसे अधिक उठाया। बाद में बाकियों ने उठाया और वह कहानी तब तक बजाई जाती रही जब तक पुलिस पूरी तरह एक्शन में न आ गई, उसने ‘आरोपितों’ को धर न लिया और मजबूत केस बनाकर सजा न दिला दी। जब न्याय में देर होने लगी तो मीडिया व्यंग्य तक करने लगा कि लगता है: ‘नो बॉडी किल्ड जैसिका’ और बाद में इसी नाम से एक फिल्म भी बनी।
सुशांत पर भी फिल्म बन सकती है। ऐसा ही होता है, जब केस किसी ‘बड़े’ का होता है और बड़े-बड़े शक के घेरे में ला दिए जाते हैं तो राजनीति भी बड़ी होती है और अपराध कथा को सत्तात्मक विमशरे के इतने धक्के लगते हैं कि वह कथा बड़ी ताकतों के बीच ‘फुटबॉल’ बन जाती है। इस चक्कर में उसके इतनी तरह के ‘पाठ’ बनने लगते हैं कि असली सच का पता ही नहीं चलता। ‘पावर’ (सत्तात्मक ताकत) का हर धक्का किसी प्रथम-दृष्ट्या एकदम स्वयं सिद्ध कहानी को भी शकों के घेरे में ऐसा डाल देता है कि ‘फैसला’ होने के बाद भी लगता रहता है कि सच शायद कुछ और ही होगा।
जब कई बड़ी ताकतें अपने-अपने हित के लिए एक दूसरे से उलझ जाती हैं, तो सच का कचूमर निकल जाता है लेकिन इस प्रक्रिया में अपराध कथाएं जिंदा सीरियल जैसी बन जाती हैं और जिंदा अपराध कथाओं की तरह खूब बिका करती हैं। मामला जितना खिंचता है, उतना ही बिकता है और जितनी देर होती है, हमारा कल्पित सच उतना ही दयनीय होता जाता है। और अंतत: इस बात में किसी की दिलचस्पी नहीं रह जाती कि अपराधी कौन था और उसे सही सजा मिली कि नहीं? सुशांत की मौत की कहानी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो सकता है। चाहे जांच महाराष्ट्र पुलिस करे या सीबीआई करे या कोई और करे, सच ‘अधमरा’ हो कर ही सामने आएगा और तब तक हमारा मीडिया इस ‘र्मडर मिस्ट्री’ की आखिरी बूंद तक निचोड़ चुका होगा और फिर कोई चैनल अपने को इस अपराध कथा का सबसे बड़ा पहरेदार कहकर अपनी पीठ ठोकेगा।

सुधीश पचौरी


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