मुद्दा : सार्थक विकास की सही पहचान बनाना

Last Updated 03 Aug 2020 12:24:08 AM IST

विश्व स्तर पर यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि सार्थक विकास की सही पहचान बनाना बहुत जरूरी है।


मुद्दा : सार्थक विकास की सही पहचान बनाना

यदि किसी महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को उच्च प्राथमिकता बनाते हुए उसके लिए अधिकतम प्रयास करना है तो जरूरी है कि उस लक्ष्य को सही ढंग से परिभाषित कर लिया जाए, उसकी सही पहचान बना ली जाए। मौजूदा दौर में सबसे अधिक राष्ट्रीय आय के आधार पर या जीएनपी (ग्रास नेशनल प्रोडक्ट) के आधार पर विकास को आंका जाता है। विभिन्न आकलन में सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात की होती है कि प्रति व्यक्ति जीएनपी या जीडीपी की संवृद्धि दर कितनी रही है? पर इस तरह के आकलन में कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे छूट जाते हैं।

मान लीजिए दो देश अन्य सब मामलों में एक से हैं पर एक देश में कोई नशा नहीं करता है व दूसरे देश में शराब की भरपूर खपत है। निश्चय ही पहले देश की स्थिति बेहतर है पर दूसरे देश की जीएनपी अधिक दिखाई जाएगी। इसी तरह मान लीजिए दो देश हर मामले में एक से व स्थिर है पर एक देश में जुआ खेलने पर रोक है व दूसरे देश में जुआघर या कैसिनो तेजी से खुल रहे हैं। निश्चय ही जन कल्याण की दृष्टि से पहला देश अच्छी स्थिति में है पर जीएनपी दूसरे देश का बढ़ा हुआ नजर आएगा।

इसी तरह मान लीजिए कि एक देश में अपने पेड़ों को पूरी तरह सुरक्षित रखा जाता है व दूसरे देश में सब पेड़ों को काट कर बेच दिया जाता है। निश्चय ही पहले देश ने पर्यावरण को बचा कर बहुत भला कार्य किया। पर जीएनपी की वृद्धि कम-से-कम अल्पकालीन स्तर पर उसी देश की बढ़ी हुई नजर आएगी, जिसने सब पेड़ों को काट दिया और उससे कमाया-खाया। मान लीजिए कि दो देशों का जीएनपी एक जितना है पर एक देश में यह ऊपर के चंद लोगों में अधिक केंद्रित है पर दूसरे दश में यह समता के आधार पर वितरित है। जीएनपी की दृष्टि से दोनों देश एक से नजर आएंगे, जबकि जन-कल्याण की दृष्टि से दूसरे देश की दृष्टि कहीं बेहतर है। अत: स्पष्ट है कि जीएनपी को आधार मान कर ही आगे बढ़ने से कोई भी देश अनेक तरह की विसंगतियों व विकृतियों में फंस सकता है। बढ़ते नशे, अन्य सामाजिक बुराईयों, पर्यावरण विना व आर्थिक विषमताओं के बीच भी विकास के बढ़ते दावे किए जा सकते हैं, जैसा कि अनेक देशों में हाल के दशकों में हुआ है। अत: जीएनपी के स्थान पर सार्थक विकास की एक अलग पहचान की गई है कि मनुष्य की बुनियादी आवयकताएं कहां तक पूरी होती हैं?

भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी आवश्यकताओं के कुछ संतोषजनक पैमाने तय किए जा सकते हैं व यह आकलन किया जा सकता है कि इनकी आपूर्ति कितनी बढ़ रही है। इसमें भी यह जोड़ा गया है कि यह आपूर्ति टिकाऊ  तौर पर बढ़नी चाहिए, दीर्घकालीन स्तर पर भी आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए व इसके लिए पर्यावरण की रक्षा आवयक है। इस तरह मुख्य आकलन का बिंदु यह बनता है कि सभी बुनियादी जरूरतों की टिकाऊ व दीर्घकालीन (सस्टेनेबल) उपलब्धि सुनिश्चित करने की ओर हम बढ़ें।

सार्थक विकास की यह समझ केवल जीएनपी आधारित समझ से तो बेहतर है पर इसमें भी कुछ कमियां हैं। यह मुख्य रूप से मानव केंद्रित है, जबकि चिन्ता तो सभी जीवन रूपों की होनी चाहिए। इस सोच में एक अन्य कमी यह है कि इसमें मनुष्य के सरोकारों को पूरी तरह भौतिक आवयकताओं की आपूर्ति से जोड़ दिया जाता है। मनुष्य के लिए भौतिक स्तर पर बुनियादी जरूरतों को पूरा करना बहुत जरूरी है, पर इसके साथ उसके लिए विभिन्न मानवीय व अन्य संबंध बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्राय: विभिन्न सामाजिक संबंधों का ताना-बाना बहुत नजदीकी तौर पर मनुष्य की सुख-दुख की अनुभूतियों से जुड़ा होता है। दैनिक जीवन के छोटे-बड़े बहुत से दुख-दर्द इन संबंधों से नजदीकी तौर पर जुड़े होते हैं।

मनुष्य के लिए प्रेम, गरिमा, सम्मान, सहयोग, समता, सुरक्षा, सार्थकता जैसी विभिन्न अनुभूतियां बहुत महत्त्वपूर्ण हैं व इसके अनुकूल सामाजिक संबंध व सामाजिक ढांचे की उसे जरूरत है व तलाश है। इन सब महत्त्वपूर्ण सरोकारों को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि सार्थक विकास की पहचान इससे है कि दुख-दर्द कम हो रहे हैं या नहीं। मनुष्यों व अन्य जीवन-रूपों के दुख-दर्द के विभिन्न स्रोतों की पहचान की जा सकती है (चाहे यह भौतिक स्तर पर हो या सामाजिक संबंधों के स्तर पर)। इन दुख-दर्द को अल्पकालीन व दीर्घकालीन स्तर पर न्यूनतम करने को ही सार्थक विकास की मूल पहचान माना जा सकता है।

भारत डोगरा


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