ईद-उल-जुहा : नजीर पेश करने का वक्त

Last Updated 30 Jul 2020 12:07:27 AM IST

ईद उल-जुहा (बकरीद) मुसलमानों का अहम त्योहार है। अरबी कैलेंडर के आखिरी महीने (जिल-हिज्जा) में मनाए जाने वाली बकरीद त्याग और बलिदान की याद दिलाने वाला और उसका महत्त्व समझाने वाला महान पर्व है।


ईद-उल-जुहा : नजीर पेश करने का वक्त

दरअसल, हर साल हज के महीने में बकरीद मनाई जाती है। जिस दिन हज की समाप्ति होती है, उसी दिन यह त्योहार मनाते हैं। सऊदी अरब जाकर हज करने वाले हर हाजी के लिए एक कुर्बानी करना अनिवार्य होता है। इस्लाम में बलिदान को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। ईश्वर की राह में अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करना उत्तम कार्य माना गया है।
ईद-उल-फितर की तरह ही इस बार की बकरीद भी कई मायनों में अनूठी होने वाली है। कोरोना वायरस के कारण उपजी महामारी ने पर्व-त्योहारों को मनाने का तरीका ही बदल दिया है। लॉकडाउन के बाद इस साल सभी धर्मो के पर्व सादगी से मनाए गए हैं और आगे भी ऐसी ही उम्मीद है। इस साल ईद-उल-फितर बड़ी सादगी से मनाई गई थी। लॉकडाउन के कारण लोगों ने घर में ही नमाज अदा की। हालांकि अब कई राज्यों से लॉकडाउन को हटा लिया गया है, लेकिन कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए बकरीद की नमाज भी घरों में ही अदा करना मुनासिब है।

दरअसल, इस पर्व के संदेश को अपने जीवन में उतारने का यह सबसे माकूल वक्त है। बकरीद द्वारा त्याग के पैगाम से सीखते हुए हमें विश्व कल्याण के लिए अपनी इच्छाओं को त्यागने की जरूरत है। बड़ी तादाद में हमारा इकट्ठा होना संक्रमण के खतरे को और बढ़ा सकता है। लिहाजा, देशवासियों की सुरक्षा का ख्याल रखते हुए हमें किसी भी भीड़ का हिस्सा बनने से बचने की जरूरत है। एक बार फिर ईदगाह और मस्जिदों में नमाज पढ़ने और सबसे गले मिलने की खुशियों को त्यागना होगा।
इससे इतर, हम जानते हैं कि इस्लाम प्रेम और भाईचारे का समर्थन करने वाला धर्म है। हम जानते हैं कि इस वैश्विक आपदा के समय मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गई तो कइयों के कारोबार ठप हो गए। देश के कई राज्यों से तो लोगों के भुखमरी के शिकार होने की खबरें भी आई हैं। दूसरी ओर, कोरोना महामारी के चलते सऊदी अरब ने इस बार विदेशी हजयात्रियों के लिए दरवाजे बंद कर दिए हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि हर साल भारत से दो लाख लोग हज करने जाते हैं और हर व्यक्ति औसतन तीन लाख रु पये खर्च करता है। इस तरह देखें, तो हज यात्रा पर खर्च होने वाले कुल 6 हजार करोड़ यानी 60 अरब रु पये लोगों के बच गए। यह तो तय है कि ये रु पये अल्लाह की राह में खर्च होने वाले थे। फिर क्यों न इन बचे रु पयों से एक ऐसा फंड विकसित किया जाए जो दबे-कुचले और हाशिये पर बैठे लोगों के काम आए? इससे समाज के विकास और गरीबों को सशक्त करने की एक बड़ी योजना तैयार हो सकती है। हमें समझने की जरूरत है कि अल्लाह की राह में खर्च करने का मतलब नेकी और भलाई के कामों से है।
फिर हालिया परिस्थिति को देखते हुए हमें परंपरागत रूप से हो रही कुर्बानी पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। हम यह समझ ही चुके हैं कि मौजूदा वक्त में हर समाज, हर मजहब के लोगों के साथ खड़ा होना बेहद जरूरी है। ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि हम गरीब-मजदूरों की इस दयनीय परिस्थिति में उनके मददगार बनें। गौरतलब है कि कुर्बानी भी अल्लाह के हुक्म को मानने की नीयत से दी जाती है और जरूरतमंदों एवं मजलूमों की मदद करना भी अल्लाह का हुक्म है। फिर क्यों न कुर्बानी पर खर्च होने वाले धन को इन गरीबों पर दिल खोलकर खर्च किया जाए?
दरअसल, ‘कुर्बानी’ की कुर्बानी देकर अगर हम समाज के पुनरु द्धार के लिए आगे आते हैं, तो इससे बेहतर बात कुछ और नहीं हो सकती। इससे समाज में सौहार्द और समरसता का आगमन होगा और ये दो चीजें समाज में अमन और शांति की नींव डालेंगी। ये कुछ ऐसे कार्य हैं, जो इस पर्व के मूल संदेश-त्याग और बलिदान को अमलीजामा पहनाने के सबूत हैं। तो आइए, इस बदलते वक्त में समाज में परिवर्तन की नींव रखते हैं और पूरी दुनिया तथा कौम के लिए एक नजीर पेश करते हैं।

रिजवान अंसारी


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