मीडिया : मोबाइल ही संदेश है
अब आप भी अब अपना चैनल खोलकर उसके सव्रेसर्वा बन सकते हैं और ठाठ से अपने मन की सी पत्रकारिता कर सकते हैं।
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इसके लिए आज के चैनलों की तरह न किसी स्टूडियो की जरूरत है और न किसी और तामझाम की। न बड़े बजट की जरूरत है, न किसी लाइसेंस-परमिट की। किसी चीज की जरूरत है तो एक अच्छे कैमरे वाले स्मार्टफोन की, कुछ एप्स की और पत्रकारिता की आपकी समझ की।
यह आपके ‘यूट्यूबर’ होने का अवसर है। आप भी ‘यूट्यूबरी पत्रकारिता’ कर सकते हैं। आपके भी दर्शक हो सकते हैं। और आपने इसे गंभीरता से लिया तो सोशल-मीडिया-पत्रकारिता के क्षेत्र में लीड ले सकते हैं। अब आपको किसी संस्थान में पत्रकारिता का डिप्लोमा या डिग्री करने के लिए कहीं भटकने की जरूरत नहीं। आपकी पत्रकारिता आपके हाथ में है। आपके ‘स्मार्टफोन’ में है। कुछ कायदे से करना चाहें तो आपको सिर्फ इतना करना है कि अपने ‘स्मार्टफोन’ रूपी कैमरे के लिए, कोई एक हल्का सा ‘आईपॉड’ ले आएं, उसे ‘गन माइक’ बनाने के लिए एक ‘हैंडल’ खरीद कर ले आएं जिसमें आप उसे जरूरत पड़ने पर फिक्स कर सकें। कोरोना के खतरे के इस जमाने में आप ‘छह फुट की दूरी’ की ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का निर्वाह करते हुए किसी से भी बातचीत कर सकते हैं। अपने फोन कैमरे से आप जो चाहें शूट कर सकते हैं, जितना चाहें शूट कर सकते हैं। कुछ खास ‘ऐप्स’ की सहायता से आप मनचाहा संपादन भी कर सकते हैं, उसे इधर-इधर से काट-छांट सकते हैं, मनचाहे रंग भर सकते हैं और ‘मॉर्फ’ भी कर सकते हैं।
जिस पत्रकारिता के हुनर को सीखने के लिए लोग दस-बीस हजार रुपये से लेकर दस-पांच लाख रुपये तक खर्च किया करते थे, एक साल या दो साल ‘जर्नलिज्म’ की क्लासें अटेंड किया करते थे, परीक्षाएं दिया करते थे, प्रोजेक्ट लिखा करते थे, फिर अपनी ‘टिप्पस’ भिड़ाकर इधर-उधर ‘इंटर्नशिप’ किया करते थे, अब ऐसी किसी सनद की जरूरत नहीं।
‘स्मार्टफोन’ और सोशल मीडिया के नाना प्लेटफार्मो की लगभग फ्री की उपलब्धता ने आपको अपना फुलटू चैनल खोलने का रास्ता दिखा दिया है। न करोड़ों के बजट की जरूरत, न किसी बड़े तामझाम की और चैनल चालू। इन दिनों ऐसे अनेक ‘यूट्यूबर’ हैं जो अपने-अपने ‘खबर चैनल’ और ‘एंटरटेनमेंट चैनल’ खोले हुए हैं। वे उसके मैनेजर भी और रिपोर्टर, संपादक और एंकर भी हैं और लोगों को उसे ‘सब्सक्राइब’ करने का आग्रह करते रहते हैं। ‘कंटेंट’ की कमी नहीं। वह सब फ्री में उपलब्ध है और इतनी मात्रा में है कि उसमें से अपने मतलब के माल को निकालना ही एक बड़ी चुनौती है। इस ‘फ्री फंडिया’ बाढ़ में क्या ‘फेक’ है या ‘झूठ’ है? वह कहीं किसी का एजेंडा तो नहीं है? उसे लेने में कोई कानूनी जोखिम तो नहीं है? इन बातों का खयाल रखेंगे तो आपका यूट्यूबी चैनल जम भी सकता है।
‘स्मार्टफोन’ से टीवी-कैमरे का काम लेने की शुरुआत अपने यहां सबसे पहले ‘एनडीटीवी’ ने की थी और वो आज भी उसी से काम लेता है। यही नहीं वह अरसे से बताता भी आ रहा है कि उसने किस ब्रांड के मोबाइल फोन को टीवी कैमरे में बदला है। आजकल बहुत से चैनल इसी तरीके से काम करते हैं। अब न किसी भारी-भरकम कैमरे की जरूरत है, न अलग से कैमरामैन की जरूरत है। एक बंदा ही ‘ऑल इन वन’ है। यों परंपरागत चैनल अभी भी स्टूडियोज से काम करते हैं। उनके पास अब भी पुराने तरीके के तामझाम हैं जैसे कि ‘ओबी वैन’ हैं, मेहमानों को लाने-ले जाने के लिए गाड़ियां-टैक्सियां हैं और बहुत से सहायक हैं लेकिन कोरोना ने उनको भी सिखा दिया कि अब न ‘ओबी वैन’ कहीं भेजने की जरूरत है, न कैमरामैन और रिपोर्टर की टीम भेजने की जरूरत है। अगर आपको किसी से ‘ऑनलाइन कनेक्ट’ करना है तो आप किसी ‘जूम’ या ‘स्काइप’ या ‘गूगल हैंगआउट’ या ‘व्हाट्सएप’ या ऐसे ही किसी ‘वेब एप’ से या के जरिए किसी एक्सपर्ट के स्मार्ट फोन से कनेक्ट की कीजिए और बहसें कराइए।
लॉकडॉउन के इस दुर्वह दौर में ऐसे ही कंप्यूटरों और मोबाइलों ने मिलकर ‘वेबिनार’ जैसे एक नितांत नये संवादी मंच को संभव किया है और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के कारण न हो सकने वाली ‘सेमिनारों’ की कमी को पूरा कर दिया है। यद्यपि यह दु:खद सचाई है कि इस तकनीकी क्रांति ने बहुत से पत्रकारों को बेरोजगार भी किया है और ‘मीडिया हाउसेज’ को सिकोड़ दिया है, लेकिन लोगों को एक नया अवसर भी दे दिया है। शायद इसीलिए, आज ‘मीडिया इज मेसेज’ की जगह ‘मोबाइल ही संदेश है’ का नारा पॉपुलर हो रहा है।
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