सामयिक : महामारी की मार और सरकार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून के आखिर में राष्ट्र को एक बार फिर संबोधित किया था। यह कोरोना संकट के आने के बाद से राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का छठा संबोधन था।
सामयिक : महामारी की मार और सरकार |
प्रधानमंत्री की मानें तो सब ठीक-ठाक था। बेशक, लोगों को दिलासा देना, तसल्ली देना तो समझ में आता था, ताकि लोग बेवजह घबराएं नहीं। पर यहां तो इसकी शेखी बघारी जा रही थी कि भारत कैसे कोरोना का मुकाबला करने में दूसरे बड़े-बड़े देशों से आगे है, उनसे ज्यादा कामयाब रहा है।
यह कहकर खुद अपनी पीठ भी ठोकी गई कि सरकार ने सही समय पर कदम उठाकर लाखों जानें बचाई हैं! फिर भी प्रधानमंत्री मोदी भी इस सचाई को छुपा नहीं सके कि उनकी सरकार के कामयाबी के दावे अपनी जगह, कोरोना के पीड़ितों और उससे जान गंवाने वालों का आंकड़ा तेजी से ऊपर से ऊपर ही जा रहा है। आज कोविड-19 के संक्रमण मामले में भारत पहले लॉकडाउन में और उसके बाद तथाकथित अनलॉक में भी तेजी से ऊपर चढ़ते गए हैं और भारत दुनिया भर में टॉप से तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। बेशक, अमेरिका तो अब भी सबसे आगे है। उसके बाद ब्राजील। दस लाख का आंकड़ा पार कर भारत तेजी से ब्राजील को पछाड़ने की ओर बढ़ रहा है। बहरहाल, महामारी के मोच्रे पर बढ़ती चुनौती के लिए किसी तरह की जिम्मेदारी स्वीकार करने से साफ इनकार करते हुए, प्रधानमंत्री ने केसों में और मौतों में भी तेजी से बढ़ोतरी की सारी जिम्मेदारी, जनता पर ही डाल दी। उनका कहना था कि अनलॉक में जनता लापरवाह हो गई है।
लोगों ने दो गज दूरी, चेहरे पर मास्क लगाने और बार-बार साबुन से हाथ धोने जैसी सावधानियों के मामले में ढील शुरू कर दी है। जो महामारी का बढ़ता जोर दिखाई दे रहा है, उसी का नतीजा है। पर महामारी का जोर तो बढ़ता ही जा रहा है। हर रोज, पिछले दिन से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं और पिछले दिन से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं, लेकिन हमारी सरकार, इस सचाई पर पर्दा डालने की ही कोशिशों में लगी हुई है। यह सिर्फ लोगों को झूठी तसल्ली देने का भी मामला नहीं है। यह इस बढ़ते खतरे का मुकाबला करने की जिम्मेदारी पूरी करने से भागने का भी मामला है। वास्तव में इस सरकार ने पहले तो लॉकडाउन से मिली मोहलत को गंवा दिया। होना यह चाहिए था कि लॉकडाउन से संक्रमणों की रफ्तार में बढ़ोतरी पर लगने वाले अंकुा का इस्तेमाल कर बड़े पैमाने पर टैस्टिंग बढ़ाते। संक्रमितों के संपकरे का पता लगाते। बड़े पैमाने सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाएं जुटाते। बैड, आइसीयू, वेंटीलेटर जुटाते, लेकिन वह नहीं किया। फ्रंटलाइन वर्कर्स की प्राणरक्षा के लिए जरूरी पीपीई किटों तक का इंतजाम नहीं किया गया। और तो और देश की राजधानी में ये आलम है कि नगरपालिका के अस्पतालों में डाक्टर इसी संकट के बीच तीन-तीन महीने की तनख्वाह ही नहीं मिलने के चलते, हड़ताल की धमकी देने पर मजबूर हो गए। र्नसो का तथा बाकी स्टाफ तथा आशा वर्कर्स से लेकर सफाईकर्मियों तक का क्या हाल होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।
बहरहाल, पहले लॉकडाउन की मोहलत को बर्बाद किया गया सो किया गया, ओपन-1 के शुरू होने के बाद से तो सरकार ने जैसे इस लड़ाई से अपना हाथ ही खींच लिया है। लॉकडाउन-3 के आखिर में प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये के ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ का जो एलान किया था, वास्तव में देश की सरकार के कोरोना के खिलाफ मोच्रे से पीछे हट जाने का ही एलान था। अचरज नहीं कि इस पैकेज में, कोरोना के मुकाबले के लिए किसी भी नये खच्रे का, किसी भी नयी योजना का एलान कोई नहीं था। इसके ऊपर से इस बढ़ते संकट की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का एक सरासर झूठा नारा और उछाल दिया गया। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जैसी इसकी शेखी मारी कि कैसे उनकी सरकार सही वक्त पर और सारी जरूरी कदम उठाकर कोरोना के कहर से देश को बचा लिया था। उसी तरह उन्होंने इसकी भी शेखी मारी कि कैसे उनकी सरकार ने बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए इसकी गारंटी की थी कि लॉकडाउन में कोई भूखा न सोए। इतना ही नहीं, उन्होंने तो बढ़ा-चढ़ाकर इसका भी बखान किया कि कैसे उनकी सरकार ने जनता को मुफ्त भोजन मुहैया कराने का इतना बड़ा काम किया था, जो न पहले किसी न किया था और न आइंदा कर पाएगा। उनकी सरकार ने तो अमेरिका की कुल आबादी से ढाई गुने, इंग्लैंड की आबादी के 12 गुने और योरपीय यूनियन की आबादी से दोगुने लोगों को मुफ्त भोजन कराया था! इसके साथ ही उन्होंने 20 करोड़ गरीबों के खाते में तीन महीने में 31 हजार करोड़ रुपये जमा कराने का गाना भी गया।
वह यह भूल गए कि मामूली गणित से भी कोई भी जान जाएगा कि यह सिर्फ और सिर्फ 500 रुपये महीना एक पूरे परिवार को देने का मामला हुआ। लॉकडाउन की घोषणा के बाद, 1.75 लाख करोड़ रुपये के गरीब कल्याण पैकेज की ठोस रूप-रेखा जारी होने में दो-तीन दिन निकल गए। और उसके बाद, उसमें की गई घोषणाओं को जमीन पर उतरने में कुछ दिन और। यही वह समय था, जब आय के साधन छिनने से भूखों मरने की नौबत आती देखकर, भारत के छोटे-बड़े सैकड़ों शहरों से हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों के अपने घर-गांव की ओर पलायन का सिलसिला शुरू हुआ, जो लॉकडाउन के पूरे दौर में जारी रहा। पलायन का यह अंतहीन सिलसिला ही तालाबंदी में गरीबों की जरूरतें पूरी करने के मोदी सरकार के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।
‘कोई भूखा नहीं सोए’ मोदी सरकार ने कितनी मुस्तैदी से सुनिश्चित किया? लॉकडाउन-3 के आखिर में यानी लॉकडाउन के पचास से ज्यादा दिन गुजरने के बाद, सरकार को इस बात का ख्याल आया कि करोड़ों प्रवासी मजदूरों के पास राशन कार्ड तो हैं ही नहीं और इसके चलते उन्हें तो मुफ्त राशन मिल ही नहीं पा रहा था। इसके बाद ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया कि राशन कार्ड के बिना ही इस प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन दिया जाएगा। यह तब था जबकि खुद वित्त मंत्री के अनुसार, इन प्रवासी मजदूरों की संख्या 8 करोड़ अवय थी, हालांकि अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या 12 से 14 करोड़ होगी। सरकार के ही आंकड़े को सही मानें तो 8 करोड़ मजदूरों और उनके आश्रित परिवारों के भूखे पेट सोने का पचास दिन से ज्यादा मोदी सरकार को ख्याल ही नहीं आया। इसके बावजूद, खुद सरकार के नागरिक आपूर्ति मंत्री ने माना है कि इन आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों में से चौथाई से कम को हीसहायता के रूप में ये अनाज मिला है!
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