सरोकार : महिला फ्रंटलाइन वर्कर्स की सेहत का सवाल

Last Updated 05 Jul 2020 02:15:26 AM IST

महिला फ्रंटलाइन वर्कर्स की सेहत और सुरक्षा का भी सवाल है।


सरोकार : महिला फ्रंटलाइन वर्कर्स की सेहत का सवाल

लाखों स्वास्थ्यकर्मिंयों की स्थिति बदतर है, जो कोरोना वायरस की लड़ाई में फ्रंटलाइन वर्कर्स के तौर पर काम कर रही हैं। उन्हें न तो मुनासिब मेहनताना मिलता है और न ही उचित सुरक्षात्मक उपकरण। भेदभाव और हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है। ये आशा वर्कर्स यानी एक्रेडेटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट्स हैं। 2005 से भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का हिस्सा हैं, जो दुनिया के सबसे बड़े सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में से एक है।
सरकार के कहने पर आशा वर्कर्स की पैदल-सेना ने खुद को कोरोना के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया है। ये घर-घर जाती हैं। कोरोना के खिलाफ लोगों को जागरूक करती हैं। लोगों की सेहत और यात्रा का रिकॉर्ड रखती हैं। कोरोना के दौरान आशा वर्कर्स का एक काम और बढ़ गया। इस दौरान घरेलू हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई। इंडिया स्पेड की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि नगालैंड, मेघालय और असम में सक्रिय महिला अधिकार संगठन-नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क (एनईएन) ने घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद के लिए आशा वर्कर्स का सहारा लिया क्योंकि संगठन के लोग लॉकडाउन के दौरान बाहर नहीं निकल सकते थे। फिलहाल, आशा वर्कर्स की अखिल भारतीय समन्वय समिति ने केंद्र सरकार से बेहतर सुविधाओं की मांग की है, सरकार को जानकारी दी है कि उनसे कहा जाता है कि अपने पैसों से हैंड सैनिटाइजर और मास्क खरीदें।

समन्वय समिति पांच लाख आशा वर्कर्स का प्रतिनिधित्व करती है। दुखद है कि कोरोना के खिलाफ इतनी अहम भूमिका निभाने के बावजूद उन्हें ‘अवैतनिक स्वयंसेवक’ माना जाता है और बहुत कम मेहनताना मिलता है। यूं हर राज्य का मेहनताना अलग-अलग है। आंध्र प्रदेश में उन्हें हर महीने 10 हजार रुपये मिलते हैं, जो पूरे देश में इन्हें मिलने वाली सबसे अधिक रकम है। कर्नाटक में छह हजार और महाराष्ट्र में दो हजार रुपये मिलते हैं। इसके अलावा टीकाकरण और दूसरी देखभाल के लिए उन्हें अलग से धनराशि मिलती है, लेकिन कई बार यह भुगतान समय पर नहीं दिया जाता या बिना किसी स्पष्टीकरण के इसमें कटौती कर दी जाती है। अप्रैल में केंद्र  सरकार ने कहा था कि आशा वर्कर्स को जनवरी और जून के दौरान कोरोना संबंधी काम के लिए अतिरिक्त एक हजार रु पये मिलेंगे और अगर वे कोविड-19 संक्रमित होती हैं तो उनका बीमा भी कराया जाएगा, लेकिन अधिकतर राज्य सरकारों ने इस निर्देश का पालन नहीं किया। आशा वर्कर्स न्यूनतम वेतन यानी 18 हजार रुपये प्रति माह की मांग कर रही हैं और यह भी मांग कर रही हैं कि उन्हें पूर्ण सरकारी कर्मचारी के रूप में पहचान मिले। क्योंकि इसी से उनके साथ बदसलूकी को कम किया जा सकता है और उन पर लोगों का भरोसा बढ़ सकता है। कुछ महीने पहले बेंगलुरू और हैदराबाद में आशा वर्कर्स पर हमले हुए। क्योंकि लोगों को लग रहा था कि वे उन्हें परेशान करने आई हैं। हम जब स्वास्थ्यकर्मिंयों की बात करते हैं तो अक्सर डॉक्टर और नसरे की तस्वीर जेहन में आती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में नर्सिग का काम संभाल रही हैं आशा वर्कर्स और एएनएम वर्कर्स। एएनएम वर्कर्स यानी ऑक्सिलरी नर्स मिडवाइफ। ये आशा वर्कर्स की सुपरवाइजर के तौर पर काम करती है। आशा वर्कर्स की कहां जरूरत है, दरअसल ये एएनएम ही तय करती हैं। क्या सरकारें इन महिलाओं की सेहत और सुरक्षा का भी ख्याल रखेगी?

माशा


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