विचार स्वातंत्रय : मुखौटे में कुछ, आस्तीन में कुछ

Last Updated 03 Jul 2020 02:37:04 AM IST

यह सच्चाई है कि अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के प्रारूप को संप्रदायवाद के गहरे रंग से उकेरा गया था।


विचार स्वातंत्रय : मुखौटे में कुछ, आस्तीन में कुछ

महात्मा गांधी के लाख विरोध के बावजूद मोहम्मद अली जिन्ना अपनी जिद पर अड़े रहे और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश विभाजन के प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगा दी। इसके बाद बचाव में कांग्रेस की जिह्वा पर भाईचारा और आस्तीन में सांप्रदायिकता की छूरी बरकरार है। कांग्रेस अपनी राजनीति के तहत समुदायों को बांटती है और इसका दोष किसी और पर मढ़ देती है। कांग्रेस के नेता अल्पसंख्यकों के नाम पर मात्र दो समुदायों को हथेली पर लिए रहते हैं। कांग्रेस के इस खेल का हाल ही में हुए एक हत्याकांड में खुलासा हुआ है।
उक्त हत्याकांड में महाराष्ट्र सरकार और सरकार में शामिल घटक दल कांग्रेस की भूमिका पर से संदेह के बादल छंटने लगे हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र के पालघर इलाके में दो निर्दोष संतों और उनके ड्राइवर की कथित षडयंत्र के तहत हुए हत्याकांड की सच्चाई से रूबरू कराने की कोशिश में जुटे टीवी समाचार चैनल ‘रिपब्लिक भारत’ के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी के खिलाफ विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज कराई गई प्राथमिकियों पर सवालिया निशान लग चुका है। मामले की सुनवाई कर रहे मुंबई उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने अपनी राय में प्रथम दृष्टया सभी प्राथमिकियों को सत्य से परे माना है और गोस्वामी के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई पर रोक लगा दी है। प्राथमिकी कांग्रेस नेताओं ने अपनी पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी की इस मामले में धूमिल हो रही छवि को बचाने की कोशिश के तहत दर्ज कराई थी। करीब तीन महीने पूर्व पालघर में संतों को रात्रि काल में एक विशिष्ट विचारधारा के लोगों ने बेरहमी से पीट-पीट कर पुलिस की छतछ्राया में मौत के घाट उतार दिया था। जब ‘रिपब्लिक भारत’ टीवी चैनल के अर्नब गोस्वामी ने हत्याकांड की सच्चाई को सामने लाने का अभियान चलाया तो हर परिचर्चा में यथासंभव शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और वामपंथी नेताओं को शामिल किया। उनको अपना पक्ष रखने के लिए अवसर दिया।

तथापि कांग्रेस की हुल्लड़ ब्रिगेड मैदान में  आ गई। इनका तर्क था कि सोनिया गांधी त्याग और मानवता की प्रतिमूर्ति हैं जबकि अर्नब गोस्वामी तो देश में सांप्रदायिक भावना फैला रहे हैं। इससे देश बिखर सकता है। तर्क का यह तराजू लेकर सैकड़ों कांग्रेसियों ने अनेक पुलिस स्टेशनों में झूठी प्राथमिकी दर्ज करा दीं। इस रणनीति के तहत ये लोग गोस्वामी के मनोबल को तोड़ने की फिराक में थे।
इस प्रकरण की उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने स्पष्ट शब्दों  में कहा कि पहली नजर में  प्राथमिकी विसनीय नजर नहीं आ रही और उन्होंने अपने इस कथन से प्रेस की आवाज और आजादी को प्रतिष्ठित किया। 
इस संबंध में ‘राजगोपाल बनाम तमिलनाडु’ (1994, 6 एससीसी 632) का मामला गौर करने लायक है। ऐतिहासिक महत्त्व के इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने प्रेस की आजादी के संदर्भ में यह अभिनिर्धारित किया है कि सरकार को ऐसी सामग्री के प्रकाशन को रोकने के लिए पूर्व-अवरोध लगाने की विधिक शक्ति नहीं है, जिससे किसी के बदनाम होने की आशंका हो। जिन्हें आशंका है कि उनकी या उनके सहयोगी की बदनामी होगी और वे ऐसी सामग्री के प्रकाशन को रोक नहीं सके हैं, तो वे प्रकाशन के पश्चात मानहानि का दावा कर सकते हैं। यह साबित करके कि प्रकाशन झूठे तथ्यों पर आधारित है, पर वह किसी भी लोक अभिलेख पर आधारित है, तो प्रेस के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।
अर्नब गोस्वामी का भी मामला इसी प्रकार का है। पालघर में संतों की हत्या के मामले में राज्य के मुख्यमंत्री सहित अनेक लोगों ने यह कह  दिया कि हत्या अफवाह के चलते हुई और पुलिस ने इसी आधार पर जांच शुरू कर दी। टीवी चैनल ने इसी आधार पर मुद्दा बनाया और खबरें प्रसारित करने के अलावा परिचर्चाओं में सभी पक्षों को अपना पक्ष पेश करने के लिए अवसर दिया।
उधर, भारतीय दंड विधान की धाराओं के तहत अर्नब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज धाराओं पर गौर करें तो स्पष्ट है कि यह प्रपंच सत्ता के अहंकार से प्रेरित प्रतीत होता है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मामलों में व्यवस्था दी है कि समाचार प्रसार माध्यमों की सोच व्यापक आधार पर होती है। ‘बॉबी आर्ट इंटरनेशनल बनाम ओमपाल सिंह हून’ मामले (1996) 4 एससीसी) में सुप्रीम कोर्ट ने सभी दलीलों को खारिज कर दिया था। यह मामला कभी समाज से विद्रोह कर डाकू बनी और सांसद रहीं फूलन देवी के जीवन पर आधारित बनी फिल्म से जुड़ा है। फिल्म में अनेक दृश्यों को आपत्तिजनक माना गया था जबकि कोर्ट ने उसे उचित प्रतिपादित किया था।
वस्तुत: पत्रकार अर्नब गोस्वामी का मामला वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा है। कांग्रेस को यह आजादी कभी रास नहीं आई जबकि भारतीय संविधान के  अनु. 19  (1- क) के तहत यह प्रतिपादित है कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है। हर प्रजातांत्रिक सरकार इस स्वतंत्रता को बड़ा महत्त्व देती है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति, जो प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, को विकसित करना संभव नहीं है। (रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य एआईआर 1950 एससी 124) अर्थात वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आशय है-शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिह्नों या अन्य किसी प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना। अभिव्यक्ति की आजादी में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना शामिल है, जिससे वह दूसरों तक उन्हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें संकेतों, अंकों, चिह्नों तथा ऐसी अन्य क्रियाओं द्वारा किसी व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति शामिल है (लावेल बनाम ग्रिफिन (1938), 303 यूएस 444)।
अनुच्छेद 19  में प्रयुक्त ‘अभिव्यक्ति’ शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों के व्यक्त करने के जितने भी माध्यम हैं, वे अभिव्यक्ति पदावली के तहत आ जाते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। विचारों का स्वतंत्र प्रसारण ही इस स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचार प्रसार माध्यमों द्वारा किया जा सकता है।

आचार्य पवन त्रिपाठी


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