स्वामी सहजानंद सरस्वती जयंती : बरबस आती याद

Last Updated 26 Jun 2020 04:57:35 AM IST

जब देश कोरोना संकट से जूझ रहा हो, अधिकारियों-उद्यमियों की गैर-वाजिब फितरतों से किसान-मजदूर-कारीगर वर्ग त्रस्त दिखाई दे रहा हो, तो उनके मसीहा स्वामी सहजानंद सरस्वती की याद भला किसे नहीं आएगी।


स्वामी सहजानंद सरस्वती जयंती : बरबस आती याद

वो भी तब जबकि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षो और तीसरे दशक के प्रारंभिक वर्षो में फैली महामारी प्लेग के दौरान उन्होंने संत के सामाजिक सरोकारों को उद्वेलित करते हुए जनसाधारण की सेवा का और शासन को सहयोग का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया हो।
विडंबना है कि आज भारत भूमि पर भगवा सरकार है, भगवा संतों से यह सनातन भूमि आच्छादित है, लेकिन लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में आसेतु हिमालय में यदि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बात छोड़ दी जाए तो अधिकांश संतों, उनके संगठनों और आश्रमों से वह आस्ति भाव नहीं निकला, जिससे विपदा संतप्त लोगों को कुछ राहत मिलती। कहते हैं कि वर्तमान में ही इतिहास गढ़ा जाता है। लेकिन कैसी विडंबना है कि समकालीन वर्तमान अपने धवल अतीत को पुन: गढ़ पाने में असहाय प्रतीत होता है। कौन नहीं जानता कि अमूमन इतिहास खुद को दुहराता है, लेकिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अपवाद स्वरूप है। आगे क्या होगा भविष्य के गर्त में है, पर वर्तमान को उनकी याद सताती है। भले ही उनको गुजरे जमाने हो गए, फिर भी इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाया जबकि लोगबाग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं किसी समतुल्य नायक का, जो उनकी जीवनधारा बदल दे। किसानी जीवन की सूखी नदी में दखल देने वाली व्यवस्था की रेत और छाड़न को किसी अग्रगामी चिंतनधारा से ऐसे लबालब भर दे कि पूंजीवाद और साम्यवाद के तटबंध बौने पड़ जाएं समाजवादी उमड़ती दरिया देख।

आप मानें या नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति में जब भी किसानों की चर्चा होती है, तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार संगठित करने वाले दंडी स्वामी स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बरबस आ जाती है। दरअसल, वो पहले किसान नेता थे जिन्होंने किसानों के सुलगते हुए सवालों को स्वर तो दिया, लेकिन उसके आधार पर कभी खुद को विधानसभा या संसद में भेजने की सियासी भीख आम लोगों से कभी नहीं मांगी।  भारतीय किसानों की दशा और दिशा को लेकर संसद और विधानमंडल गंभीर नहीं हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाएं भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी हैं। ये तमाम संस्थाएं जनविरोधी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बनी हुई हैं। ये बातें तो किसानों की करती हैं, लेकिन इनके अधिकतर फैसले किसान विरोधी होते हैं। संभावित किसान विद्रोह से अपनी खाल बचाने के लिए इन लोगों ने किसानों को जाति-धर्म में इस कदर बांट रखा है कि वो अपने मूल एजेंडे से ही भटक चुके हैं। इसलिए उनकी आर्थिक बदहाली बढ़ी है। किसानों में आत्महत्या का प्रचलन बढ़ने से स्थिति ज्यादा जटिल और वीभत्स हो चुकी है। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बार-बार आती है।
स्वामी जी का सियासी कद नेहरू और गांधी जी के समतुल्य है लेकिन उन्हें मृत्यु के उपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने की जरूरत नहीं समझी गई। इसमें दो राय नहीं कि भारत में संगठित किसान आंदोलन को खड़ा करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को मिला। ऐसा इसलिए कि सेवा और त्याग स्वामी जी का मूलमंत्र था। अब कोई भी इस मूलमंत्र को नहीं अपना पाएगा क्योंकि कृषक समाज की प्राथमिकता बदल गई है। आज किसानों के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण जरूरी है, लॉलीपॉप वाली योजनाएं उन्हें पसंद हैं, जबकि कृषि अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने और किसानों का परोक्ष शोषण करने वाले कतिपय कानूनों का समग्र विरोध नहीं। यही वजह है कि बिजली, बीज, खाद, पानी, मजदूरी और उचित समर्थन मूल्य दिए जाने के मामलों में निरंतर लापरवाही दिखा रही सरकारों का ठोस विरोध आज तक नहीं हो पाया है। निकट भविष्य में होगा भी नहीं, क्योंकि अब नेतृत्व के बिक जाने का प्रचलन बढ़ा है। सच कहा जाए तो मनरेगा ने ‘गंवई हरामखोरी’ को ऐसा बढ़ाया है कि कृषि मजदूरों का मन भी अपने पेशे से उचट चुका है जिससे शिक्षित किसानों के किसानी कार्य बहुत प्रभावित हो रहे हैं। बावजूद इसके, ज्वलंत सवालों को स्वर देने वाला कोई राष्ट्रीय नेता नहीं दिखता, बल्कि किसी अवसरवादी गठजोड़ की झलक जरूर मिलती है। वो भी एक दो संगठन नहीं, बल्कि दो-तीन सौ संगठन मिलकर किसान हित की बात को आगे बढ़ा रहे हैं, या अपनी सियासी रोटियां किसी अन्य दल के लिए सेंक रहे हैं,  किसी के भी समझ में नहीं आता।
कहने को तो आज प्रत्येक राजनीतिक दल में किसान संगठन हैं, लेकिन किसान हित में उनकी भूमिका अल्प या नगण्य है। इस स्थिति को बदले बिना कोई राष्ट्रीय किसान नेता पैदा होना संभव ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दंडी संन्यासी होने के बावजूद उन्होंने रोटी को भगवान कहा और किसानों को देवता से भी बढ़कर बताया। इससे किसानों को भी अपनी महत्ता का भी पता चला। किसानों के प्रति स्वामी जी इतने संवेदनशील थे कि तत्कालीन असह्य परिस्थितियों में उन्होंने स्पष्ट नारा दिया कि ‘जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब वो कानून बनाएगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा’। निस्संदेह, स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने आजादी कम और गुलामी ज्यादा देखी थी। इसलिए काले अंग्रेजों से ज्यादा गोरे अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रहे।
समझा जाता है कि किसानों से मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया में जब उन्होंने सरकारी मुलाजिमों का आतंक और असभ्यता देखी तो किसानों की दबी आवाज को स्वर देते हुए कहा कि ‘मालगुजारी अब नहीं भरेंगे, लट्ठ हमारा जिंदाबाद’। इतिहास साक्षी है कि किसानों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय रहा और ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिलाने में यह ज्यादा काम आया। स्वामी जी का परिचय संक्षिप्त है, लेकिन व्यक्तित्व विराट। हालांकि परवर्ती जातिवादी किसान नेताओं और उनके दलों ने उनके व्यक्तित्व को वह मान-सम्मान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन हमेशा लीक से भटक गया। समाजवादी और वामपंथी नेता इतने निखट्टू निकले कि उन लोगों ने किसान आंदोलन का गला ही घोंट किया। उनके बाद चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत किसान नेता तो हुए, लेकिन किसी को अखिल भारतीय पहचान नहीं मिली क्योंकि इनकी राष्ट्रीय पकड़ कभी विकसित ही नहीं हो पाई। दोनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिमट कर रह गए। किसान हित में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि भी उनके खाते में नहीं रही।
(लेखक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत डीएवीपी में सहायक निदेशक हैं)

गोपाल जी राय


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