वैश्विकी : पुतिन पर रहेंगी निगाहें
सन 1962 के भारत-चीन युद्ध जैसी परिस्थितियां पूर्व लद्दाख में हुए सैन्य संघर्ष के बाद भारत के सामने एक बार फिर आ खड़ी हुई हैं।
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पहली और आधी शताब्दी के बाद घटी घटनाओं के बीच कुछ समानताएं हैं तो बहुत से नये पहलू भी हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने भी यह दुविधा थी कि सन 1962 के युद्ध के बाद वह गुटनिरपेक्षता की अपनी विदेश नीति का परित्याग करे तथा पश्चिमी देशों वाले सैन्य-राजनीति गुट के साथ जुड़ जाएं। पूर्वी लद्दाख के घटनाक्रम के बाद प्रधानमंत्री मोदी के सामने भी यही यक्ष प्रश्न है। भारत विश्व राजनीति में स्वयं एक ध्रुव बने, बहुध्रुवीय विश्व प्रणाली की अपनी नीति को जारी रखे अथवा अमेरिका के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक देशों के गुट के साथ जुड़े, भारत के सामने यह तीन विकल्प है। पूर्वी लद्दाख का संघर्ष सीमित और स्थानीय स्तर का था। हालांकि इसके व्यापक और पूरे सीमा क्षेत्र में फैलने की आशंका भी है। भारतीय विदेश नीति के नियामक घटनाक्रम के भावी स्वरूप का आकलन कर कोई अल्पकालिक या दीर्घकालिक फेरबदल करेंगे यह भी देखना होगा।
पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों की तो यह आम राय है कि चीन के आक्रामक रुख के कारण भारत को अंतत: पश्चिमी देशों के साथ आना पड़ेगा। अमेरिका की भारत प्रशांत (इंडो-पैसिफिक) नीति का केंद्रीय तत्व भी यही है। अभी तक भारत इंडो-पैसिफिक नीति के चीन विरोधी रुझान को नकारता रहा है। चीन को काबू में करने के लिए प्रस्तावित चार देशों के गुट (अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया) को सैनिक स्वरूप देने की कोशिश से भारत खुद को अलग रखना चाहता था। ऑस्ट्रेलिया के साथ हाल में हुए सैन्य सहयोग संबंधी समझौते को इस गुट के साकार होने का संकेत माना जा रहा है। लद्दाख में सैन्य संघर्ष के बाद भारत चीन को काबू में रखने वाली किसी अंतरराष्ट्रीय पहल के साथ जुड़ने का फैसला कर सकता है। चीन की आक्रामकता का उत्तर देने के लिए यह कारगर रणनीति होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बनाने की बात करते रहे हैं। एशिया की सदी में भारत और चीन दो मुख्य स्तंभ होंगे। यह दोनों देश एशिया की सदी की कीमत पर ही आपस में सैनिक रूप में उतरने का जोखिम मोल ले सकते हैं। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भारत और चीन के बीच संघर्ष को नियंत्रण में रखने में परदे के पीछे से बहुत सक्रिय भूमिका निभाई है। मीडिया की सुर्खियों से दूर रहते हुए रूस ने अपने दो रणनीतिक सहयोगी देशों भारत और चीन के साथ निरंतर संपर्क रखा और तनाव कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। भारत चीन संघर्ष में रूस के बीच बचाव की भूमिका इस बात से भी स्पष्ट है कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर चीन के विदेश मंत्री वांग यी और रूस के विदेश मंत्री सग्रेलावरोव 25 जून को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये बैठक करेंगे। पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि रूस भारत और चीन के साझा मंच (आरआईसी-रिक) में शायद भारत भाग न ले। तनाव की पराकाष्ठा में भी रूस ने भारत को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह बैठक से अलग न हो। इसी तरह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी 24 जून को मास्को में आयोजित होने वाली द्वितीय विश्व युद्ध में विजय की परेड में मौजूद रहेंगे। संभावना है कि राजनाथ सिंह राष्ट्रपति पुतिन से मिलेंगे। पूर्वी लद्दाख की स्थिति के बारे में वह भारत का पक्ष रखेंगे। हो सकता है कि मोदी और पुतिन के बीच संदेशों के आदान-प्रदान का जरिया भी बनें।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी यह तय करना है कि क्या वह प्रधानमंत्री मोदी की औपचारिक शिखर वार्ताओं की उपलिब्धयों को खारिज करने का जोखिम उठा सकते हैं। चीन दक्षिण चीन सागर, हांगकांग और ताइवान को लेकर पहले से ही दबाव का सामना कर रहा है। एक बात निश्चित है कि भारत चीन संबंध लंबे समय के लिए पटरी से उतर गए हैं। आने वाले दिनों में शी जिनपिंग के साथ किसी अनौपचारिक शिखर वार्ता की पहल मोदी करेंगे, इस बात की संभावना नहीं है। एशिया की सदी के लिए एक सकारात्मक बात यह है कि भारत और चीन दोनों ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और रिक जैसे मंचों में सहयोगी देशों के रूप में जुड़ें। उनकी यह साझेदारी और राष्ट्रपति पुतिन की सक्रिय मध्यस्थता कालांतर में हिमालय के इन दो पड़ोसी देशों के बीच अविश्वास और शत्रुता कम करेगी या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा।
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