वैक्सीन : क्यों मचा है हाहाकार?
दुनियाभर में फैले कोरोना वायरस के प्रकोप का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसके आगे दुनिया के सभी देश जूझ रहे हैं। ऐसे में पूरे विश्व की निगाहें इसके टीके पर टिकी हैं।
वैक्सीन : क्यों मचा है हाहाकार? |
कौन नहीं चाहता कि इसका टीका जल्द से जल्द आए लेकिन यह इतना जल्दी होता नहीं दिख रहा। बहरहाल, कोरोना की वैक्सीन बनाने का प्रयास दुनिया के कई देशों में जारी है। इन सब के बीच यह सवाल सबके जेहन में कौंध रहा है कि वैक्सीन बनने में कितना समय लगेगा? क्या यह बन भी पाएगा? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वैक्सीन बन गया तो यह सभी के लिए कितनी जल्दी उपलब्ध होगा?
साफ है कि पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन उपलब्ध करवाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि दुनिया की किसी एक कंपनी के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह सबको वैक्सीन उपलब्ध करवा दे। इस राह में और भी कई रोड़े हैं, जिनसे पार पाना बहुत कठिन है। खैर, आलम यह है कि इस वायरस को लेकर लोगों में खौफ बढ़ता जा रहा है। हालांकि, कोरोना दुनिया का इकलौता वायरस नहीं है, जिसने हाहाकार मचा रखा है। बल्कि इससे पहले भी कई ऐसे वायरस आ चुके हैं, जिनने दुनिया में तबाही मचाई। कोविड-19 की तरह 1918 में स्पेनिश फ्लू का नाम आया था, जिसने केवल तीन महीनों में करीब पांच करोड़ लोगों की जान ले ली थी जबकि उस समय भी आज की तरह चिकित्सा विज्ञान किंर्तव्यविमूढ़ था, लेकिन उस समय दुनिया में वैक्सीन को लेकर इतनी तेजी नहीं देखी गई थी जितनी कि आज देखी जा रही है। भारत में भी हैजा, प्लेग, चेचक (स्मॉल पॉक्स), मलेरिया, टायफाइड, टीबी इत्यादि आते रहे हैं। भारतीय इतिहास में 1870 से 1910 के कालखंड को ‘महामारी एवं अकाल का युग’ ही कहा जाता है। अकाल ने तो किया ही, महामारियों ने भी भारत में व्यापक जनसंहार किया। 1892-1940 के बीच बताया जाता है कि भारत में प्लेग से एक करोड़ के आसपास लोग मारे गए थे। इसी तरह हैजा और मलेरिया से मरने वालों के आंकड़े मौजूद हैं। इन महामारियों ने भारतीय समाज की जनसंख्या में भारी फेरबदल किया। उन महामारियों के कारण अनेकों गांव हमारे मानचित्र से गायब हो गए। फिर भी, साहस और संकल्प के बल पर गांव के गांव, पूरा परिवार और समाज महामारी से लड़ता था।
आज तो तमाम सुविधा, संसाधन, डॉक्टर सहित कई वैकल्पिक दवाएं हैं, फिर भी दुनिया में कोरोना वायरस को लेकर खौफ बना हुआ है। गौरतलब है कि हैजा, प्लेग, चेचक, मलेरिया, टायफाइड, टीबी जैसी बीमारियों के समय आज की जैसी पाश्चात्य चिकित्सा व्यवस्था नहीं थी। लोग परंपरागत नीम-हकीम एवं वैद्यों पर निर्भर थे। हालांकि इलाज तो आज कोरोना का भी नहीं है, लेकिन वैज्ञानिक कम से कम कोरोना वायरस की जीन मैपिंग करने में कामयाब जरूर हो पाए हैं। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने टीका बनाने का वादा भी किया है जबकि 1918 में जब फ्लू फैला था, तब एंटीबायोटिक का चलन इतने बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ था। इतने सारे मेडिकल उपकरण भी मौजूद नहीं थे जो गंभीर रूप से बीमार लोगों का इलाज कर सकें। पश्चिमी दवाओं के प्रति भी देश में स्वीकार का भाव नहीं था और ज्यादातर लोग देसी इलाज पर ही यकीन करते थे। लेकिन आज वैक्सीन को लेकर पूरी दुनिया सक्रिय है। सामान्यत: एक वैक्सीन का विकास करने में कई साल लग जाते हैं क्योंकि सबसे पहले जानवरों पर ऐसी दवाइयों का परीक्षण किया जाता है और उसके बाद ही मानव शरीर पर उसको आजमाया जाता है।
ऐसा नहीं है कि कोरोना वायरस को हराया नहीं जा सकता। बस, एहतियात, साहस और संकल्प की जरूरत है। आज वैक्सीन से ज्यादा बस इनकी ही जरूरत है। महामारियां पहले भी फैलती रही हैं, मनुष्य उनका मुकाबला करता रहा है। जीतता रहा है। हम उस समाज के अंग हैं, जिसने पिछली सदी में प्लेग, हैजा और चेचक जैसी महामारियों से दो-दो हाथ किए और उन्हें उखाड़ फेंका। बहरहाल, आज की तारीख में जब फिर एक बार ऐसी ही एक मुसीबत सामने मुंह खोले खड़ी है, तब सरकार चुस्ती के साथ इसकी रोकथाम में लगी हुई है लेकिन एक सदी पहले जब ऐसी ही मुसीबत सामने आई थी, तब नागरिक समाज ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इस पहलू को भी हमें ध्यान में रखना होगा।
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