कोरोना से जंग : अब आगे की सोचें

Last Updated 25 May 2020 01:17:14 AM IST

लॉकडाउन से सबने ये समझ लिया है कि कोरोना के साथ कैसे जीना है। धीरे-धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं।


कोरोना से जंग : अब आगे की सोचें

प्रवासी मजदूरों के घर लौटने की भीड़ देश के हर महानगर व अन्य नगरों में व शराब की दुकानों के बाहर लगी लम्बी लाइनें इस बात का प्रमाण है कि लोगों के धैर्य का बांध अब टूट चुका है। बहुत से लोग मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते कोरोना से नहीं मरे तो भूख और बेरोजगारी से लाखों लोग अवश्य मर जाएंगे। इसलिए जो भी हो इस कैद से बाहर निकला जाए और चुनौती का सामना किया जाए।

जिनके पास घर बैठे खाने की सुविधा है और जिनका लॉकडाउन से कोई आर्थिक नुकसान नहीं हो रहा उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लॉकडाउन कितने दिन अभी और चले। उधर देश भर से तमाम सूचनाएं आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी बात नहीं है। पारम्परिक पद्धतियों जैसे होम्योपैथी और आयुर्वेद ने बहुत सारे कोरोना पॉजिटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। और इसी बीच पिछले हफ्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की, जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान-बूझ कर कोरोना का इंफेक्शन लें और फिर पूरी तरह ठीक हो कर दिखाएं।

उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है, जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया, उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नये-नये हानिकारक प्रयोग किए। जिन्हें बाद में रद्द करना पड़ा। जैसे मां के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक। पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया। जहां तक हम भारतीयों की बात है; मैं हमेशा से इस बात पर जोर देता आ रहा हूं कि भारत का पारम्परिक भोजन, पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन, पारम्परिक औषधियां और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त राष्ट्र बन पाएंगे।
रही बात कोरोनापूर्व के आधुनिक जीवन की तो कोरोनापूर्व वाला जीवन तो लौटने वाला नहीं। न उत्सवों में वैसी भीड़ जुटेगी, न वैसा पर्यटन होगा, न वैसे मेलजोल होंगे और न वैसी चमक-दमक की जिंदगी। कुछ महीनों या कुछ वर्षो तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे। 1978 में जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो किसी मंत्री या नेता के घर के चारों ओर न तो चारदीवारी होती थी, न सुरक्षा के इतने तामझाम। पर बढ़ते आतंकवाद और अपराध ने शासकवर्ग को किलों में कैद कर दिया है।

इसी तरह न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के बाद से हवाई अड्डों पर सुरक्षा अचानक ही कई गुना बढ़ा दी गई, जिसका असर पूरी दुनिया में हुआ। शुरू में तो अटपटा लगा फिर लोगों ने सुरक्षा जांच उपकरणों से गुजरने के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में धीरज से खड़े रहने की आदत डाल ली। इसी तरह पूरी दुनिया पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने, गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे। चेहरे पर मास्क, बार-बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना, जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी। इसी तरह अब लोग एक-दूसरे को उपहार देने या फल, मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे। ऐसे सब लेन-देने ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफर से ही कर लिये जाएंगे। इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में मां-बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है। जहां तक सम्भव होगा दफ्तर का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे, जिससे कम-से-कम सामाजिक सम्पर्क हो।

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा। क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियां काफी कम हो जाएंगी। लेकिन इसका बहुत बड़ा असर लोगों के मनोविज्ञान पर होगा। अनेक शोध प्रपत्रों में यह बात कही जा रही है कि इस तरह ऑनलाइन काम करने या पढ़ाई करने से लोगों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध और हताशा बढ़ेगी। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने सहपाठियों से मिल कर मस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं। खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है।

ये सब उनसे छिन जाएगा तो कल्पना कीजिए कि हमारी अगली पीढ़ी के करोड़ों नौजवान कितने डरे-सहमे और असंतुलित बनेंगे। इसलिए विश्व स्तर पर एक बहुत बड़ा तबका ऐसे वैज्ञानिकों, पत्रकारों व राजनेताओं का है जो बार-बार इस बात पर जोर दे रहा है कि कोरोना का आतंक फैला कर सरकारें लोकतांत्रिक परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं, मानव अधिकारों का हनन कर रही हैं और राजनैतिक सत्ता का सीमित हाथों में नियंतण्रस्थापित कर रही हैं। यानी ये सब सरकारें तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस आरोप में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल हमें कोरोना के इस मायाजाल से काफी समय तक उलझे रहना होगा और अपनी सोच और तौर-तरीकों में भारी बदलाव लाना होगा।

विनीत नारायण


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