मीडिया : कोरोना की भाषा और जनता

Last Updated 24 May 2020 01:56:22 AM IST

‘लॉक डाउन’ के इस दौर में अपने मीडिया ने एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक शिक्षक की भूमिका निभाई है।




मीडिया : कोरोना की भाषा और जनता

चाहे प्रिंट मीडिया हो या टीवी के खबर चैनलों जैसा ‘मास मीडिया’, आम जनता को चौबीस बाई सात के हिसाब से कोरोना महामारी के बारे में सजग किया है और उसे बताया है कि वह क्या करे, कोरोना से कैसे बचे और दूसरों को कैसे बचाए? फिर भी, ऐसा लगता है कि कहीं-न-कहीं अपना मीडिया कोरोना से लड़ाई के बारे में और जनता को जरूरी सावधानियों के बारे बताने में पूरी तरह कामयाब नहीं हुआ है।
इसका शायद एक बड़ा कारण, कोरोना से बचने के लिए जरूरी सावधनियां बरतने के लिए इस्तेमाल की पदावली की ‘अंग्रेजी भाषा’ है, जिसेंिहंदी मीडिया ने भी जस का तस अपना लिया है और शायद यही वजह है कि मीडिया के दिए जाते ‘संदेश’ में और जनता के ‘संदेश-ग्रहण’ में एक दूरी नजर आती है, जो आम गरीब जनता के आचरण में प्रकट हेाती है।
कहने की जरूरत नहीं कि कोरोना महामारी, अपने संक्रमण के साथ, संक्रमण से बचने-बचाने की पूरी पदावली अपने साथ लेकर आई है, जो मूलत: अंग्रेजी में है जो सारे विश्व के मीडिया में एक तरह से बोली बरती जा रही है। यह स्वाभाविक ही था, और है। इन दिनों सारा विश्व ‘डब्लूएचओ’ के वर्चस्व में है और चूंकि डब्लूएचओ की भाषा अंग्रेजी ही है, अत: बीमारी की भाषा भी अंग्रेजी है और बचाव की भाषा भी अंग्रेजी है।

उदाहरण के लिए कोरोना से बचने-बचाने के लिए इस्तेमाल किए जाते ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ पद को लें। यह पद जब से मीडिया में बोला गया है, तब से उसी तरह बोला जा रहा है, जिसे डब्लूएचओ के चेयरमैन टेडरॉस ने पहले पहल बोला था। इसके बाद यही शब्द सबकी जुबान पर छा गया। मीडिया ने भी इसे कोरोना से फाइट के लिए एक जरूरी आचरणमूलक शब्द बताया जबकि इस शब्द पर कई महामारी एक्सपटरे ने आपत्ति दर्ज की है। उदाहरण के लिए इसान लिपिकिन ने एक चैनल पर आकर साफ कहा कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द उचित नहीं है क्योंकि इससे ‘सामाजिक भेदभाव’ की भावना प्रकट होती है। इसकी जगह ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ का उपयोग किया जाना चाहिए क्योंकि ‘फिजिकल डिस्टेसिंग’ ही सटीक शब्द हो सकता है। लेकिन ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ भी तो अंग्रेजी में है, जबकि आम गरीब, मजदूर किसान, जनता देसी भाषा को ही समझते हैं। उदाहरण के लिए अगर हम ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की जगह या ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ की जगह ‘शारीरिक दूरी’ या ‘एक दूसरे से दूरी रखना’ कहना उचित होता।
और कैसा आश्चर्य कि कोई डेढ़ महीने बाद, ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की जगह स्वयं पीएम ने पहली बार ‘दो गज की दूरी’ पद का इस्तेमाल किया और इस तरह ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की भाषा की दूरी को पाटने की कोशिश की। तब भी, खबर चैनल ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं। आम देसी भाषा-भाषी अधिसंख्य गरीब आम जनता जब इसे सुनती है, तो तुरंत नहीं समझ पाती कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ है क्या?
जिस तरह आम गरीब जनता ‘कोविड 19’ और ‘कोरोना’ के बीच के ‘मेडिकल फर्क’ को नहीं जानती, उसी तरह वह ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के मानी आसानी से नहीं समझ पाती। जाहिर है कि कोरोना से लड़ाई में बहुत सी बाधओं में से बड़ी बाधा ‘अंग्रेजी’ है और उससे जुड़ा डॉक्टरों, विशेषज्ञों, नेताओं और मीडियाकर्मियों का अपना ‘ऐलीटिज्म’ है, जिसके कारण संदेश देते वक्त हम यह ‘चेक’ करना भूल जाते हैं कि जनता हमारी भाषा को समझ पा रही है या नहीं!
जब आपने उसे उसकी भाषा में समझाया ही नहीं तो वो ‘आपस में जरूरी दूरी रखने’ का महत्त्व कैसे समझे? आज जब हम हजारों गरीब, मजदूर, जनता को सड़कों पर आकर अपने संदेश घरों को जाने की मांग करते देखते हैं, उनको पास-पास खड़े होकर लाइन लगाए देखते हैं, ट्रेन की टिकट लेने के लिए एक दूसरे को धकियाते देखते हैं या जब सड़क पर एक दूसरे के साथ-साथ पैदल जाते देखते हैं और जब रिपोर्टर कहते हैं कि देखिए! ये लोग सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा रहे हैं, तो हमें हंसी आती है। अरे भाई! आपने उनकी भाषा में उनको कब समझाया कि लोगों को एक दूसरे से जरूरी दूरी या दो गज की दूरी इसलिए रखनी है ताकि कोरोना का संक्रमण उन तक न पहुंचे, कि कोरोना एक दूसरे के पास आने से फैलता है तो शायद वे दूरी का ख्याल भी रखते लेकिन आपने तो दिन-रात सिर्फ ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ ही बोला, उनकी अपनी भाषा में या कहें कि हिंदी में तो नहीं समझाया कि ‘दूरी’ क्यों जरूरी है और कितनी दूरी रखने की बात की जा रही है?

सुधीश पचौरी


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