श्रमिक एवं शहरीकरण : नये समीकरण का आरंभ

Last Updated 22 May 2020 12:40:51 AM IST

श्रमिक वर्ग का पलायन अर्थात आव्रजन और प्रव्रजन तथा शहरीकरण भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में संकट रहा है। कोविड-19 के कारण यह संकट अब दूसरे रूप में दिखाई पड़ रहा है।


श्रमिक एवं शहरीकरण : नये समीकरण का आरंभ

आधुनिकता एवं सुविधाओं की चकाचौंध में गांव से शहरों की तरफ पलायन भारत में पिछले सत्तर-अस्सी वर्ष में अधिक हुआ है। केवल रोजगार अवसर की तलाश के कारण ही नहीं हुआ है, बल्कि लोगों द्वारा आधुनिकता के आकषर्ण तथा सुविधाओं एवं सेवाओं की उपलब्धता के कारण  अधिक हुआ है।
महानगर की निश्चित धारण क्षमता होती है। एक और महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि नगरों में आप निश्चित संसाधन क्षमता अर्थात क्रय क्षमता के अनुसार ही जीवन यापन कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि ग्रामीण क्षेत्र में रहकर जितनी सुविधाओं और सेवाओं की पूर्ति आप न्यूनतम निवेश करके प्राप्त कर सकते हैं, उसकी तुलना में शहरों में अधिक निवेश करना पड़ता है। यह निवेश बड़े शहरों में और बढ़ जाता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है  कि गांव में परस्पर निर्भरता,  परस्पर पूरकता व परस्पर विश्वास का वातावरण तुलनात्मक रूप में बहुत सघन रूप में मिलता है, जबकि नगरों में इसकी व्यावहारिक रूप में कमी दिखाई पड़ती है। वर्तमान कोरोना महामारी के कारण  श्रमिक वर्ग का जो पलायन भारत में बड़े महानगरों से अपने मूल स्थान अर्थात अपने जन्म स्थान अर्थात अपने गांव या छोटे नगरों के लिए हो रहा है, वह पलायन संसाधनों तथा सुविधाओं की कमी और उसके कारण खड़ी हो सकने वाली समस्याओं के कारण कम, संभावित और आसन्न भय के कारण अधिक है। भय इस बात का है कि हमारे या हमारे परिवार के सामने कोई संकट, समस्या या महामारी के कारण शारीरिक हानि आदि होती है तो हमें देखने-संभालने वाला; हमारे क्रिया-कर्म आदि का निस्तारण करने वाला कोई नहीं होगा। हमारे बच्चों को देखने वाला, परिवार को देखने वाला, पालन-पोषण करने वाला, भोजन कराने वाला नगरों में और बड़े महानगरों में कोई नहीं होगा। यही मूल बात है जो श्रमिकों को शहरों से अपने गांव की तरफ बरबस खींचती चली आ रही है।

इस स्थिति का आने वाले समय में व्यापक प्रभाव पड़ेगा और इस प्रभाव को चार रूपों में देखा जा सकता है क्योंकि इस पलायन को रोकना एक दूसरे प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक संकट को आमंत्रित करना होगा। पहला, गांव में  पारिवारिक और सामाजिक सौहार्द एवं सहयोग तथा भाईचारे एवं बंधुत्व के नये वातावरण का पुन: सृजन होगा और यह सृजन परस्पर निर्भरता, परस्पर पूरकता व  परस्पर विश्वास जैसी भारत के गांव की बुनियादी विशेषताओं के कारण और अधिक विशिष्ट स्थान प्राप्त करेगा। जिस पारिवारिक टूटन और पारिवारिक-सामाजिक अविश्वास के कारण लोग अपने परिवारों के साथ बड़े महानगरों में आजीविका कमाने गए थे, उनकी  मनोवैज्ञानिक वृत्ति और माननीय संवेग बदल जाने की पूरी संभावना है क्योंकि शहरीकरण ने संयुक्त परिवारों के टूटने एवं आपसी अविश्वास के वातावरण को बहुत बढ़ा दिया था, अब वैश्विक महामारी के कारण अविश्वास घटेगा, कमजोर होगा और लोग सचेत रहे तो अविश्वास का वातावरण समाप्त भी होगा।
दूसरा, श्रमिकों के अपने गांव आ जाने के कारण  ग्रामीण क्रियाकलाप-पशुपालन, कृषि के साथ-साथ अन्य प्राथमिक क्रियाकलाप की सक्रियता और बढ़ेगी। लोग रोजी-रोटी व आजीविका के लिए नये अवसर की तलाश अपने गांव में करेंगे और बहुत हुआ तो अपने पड़ोस या नजदीकी नगरों और महानगरों पर स्वाभाविक रूप से निर्भर करेंगे। कुल मिलाकर यह प्रकृति, ग्रामीण संस्कृति, समग्र ग्रामीण विकास तथा  उज्जवल भारत के भविष्य के लिए नये अवसर उत्पन्न करेगा। इससे ग्रामीण एवं कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान भी बढ़ेगा क्योंकि पलायन से अपने मूल स्थान को आया हुआ श्रमिक यह भी समझ रहा है कि अपने मूल स्थान पर रहकर शहर की तुलना में कम आमदनी करके भी अपेक्षाकृत अधिक बचत कर सकेगा और शान्तिपूर्ण जीवन जी सकेगा।
तीसरा, नगरों और बड़े महानगरों की दिशा-दशा में भी व्यापक परिवर्तन होगा क्योंकि दैनिक सेवा कार्य से लेकर नगरों में श्रम की अत्यधिक आवश्यकता के कारण आने वाले समय में नगरों में श्रम की आवश्यकता अधिक होगी लेकिन श्रम की उपलब्धता बल्कि तुलनात्मक रूप में सस्ते श्रम की उपलब्धता में व्यापक कभी आएगी जिससे समग्र नगरीय व्यवस्था के सामने संकट खड़ा होगा क्योंकि जो श्रमिक मूल स्थान वापस आ रहा है, उसमें से एक बटे तीन के पुन: वापस महानगरों में लौटने की कोई संभावना नहीं होगी। दूसरे एक बटे तीन, यदि महानगरों में वापस गए भी तो, आंशिक समय के लिए आते-जाते रहेंगे और सदैव भय एवं दुविधाग्रस्त रहेंगे। शेष बचे एक बटे तीन, जो अतिशय मजबूरी और कोई सहारा प्राप्त न होने के कारण शहरों की तरफ उन्मुख होंगे भी तो, वे शहरों पर विश्वास करके पूरी निष्ठा एवं लगन से अपना योगदान नहीं दे पाएंगे। इस कारण महानगरों की दैनिक, प्राथमिक, औद्योगिक संरचना नकारात्मक रूप में प्रभावित होगी अर्थात महानगरों का संपूर्ण तानाबाना बदलेगा; नये प्रकार के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवेश का निर्माण होगा। राजनीतिक भी इसलिए कि पलायन मतदाता संरचना को भी व्यापक रूप में प्रभावित करेगा। देश में इस प्रकार का पलायन न्यूनतम पांच से छह करोड़ के आसपास ही मान लिया जाए तो इसमें से यदि 3 करोड़ ही मतदाता हों तो, वे व्यापक बदलाव लाएंगे कि भारत में निम्न-मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग मतदान में अधिक सक्रियता से भाग लेता है।
चौथा, निश्चित रूप से महानगरों में छोटे से लेकर बड़े प्रकार के अनेक कार्य रहते हैं, ये कार्य सड़क निर्माण, भवन निर्माण, सफाई व्यवस्था से लेकर अन्य बहुत सी क्रियाओं से जुड़े होते हैं। जिस परिस्थिति के वशीभूत किसी महानगर से जुड़ी सरकारें श्रमिकों के लौटने से प्रसन्न हो रही हैं, उनकी प्रसन्नता के सामने आने वाले समय में संकट खड़ा होगा। वह श्रम आएगा कहां से? शहरों के सामने यह ज्वलंत प्रश्न होगा। प्रश्न यह भी होगा कि जिनके पास आजीविका के अवसर नहीं होंगे और भयबस जो नगरों की तरफ अपनी दिशा नहीं बदलना चाहेंगे, आखिर उनका क्या होगा? देश की व्यवस्था, अग्रणी सामाजिक वर्ग, नियोजन करने वाले सभी लोगों को मिलकर न केवल इस महामारी से ही निजात पानी है, बल्कि इस समस्या के कमजोर होने या निजात पाने के बाद की देश के अंदर की परिस्थितियों से भी निपटने, उनको समझने और समाधान तक पहुंचने का यत्न और नियोजन भी अभी से करना जरूरी है क्योंकि निश्चित रूप अब अर्थ केंद्रित नहीं, मानव केंद्रित समाज एवं व्यवस्था भारत और तीव्र होगी।
(एसो. प्रोफेसर, बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर-उप्र)

डॉ. कौस्तुभ नारायण मिश्र


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